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गजल : देवेन्द्र पाठक महरूम

पुरखों के गांव खेत बाग वन उजाड़कर

फैलाओ न बदबू गड़े मुर्दे उखाड़कर

अमरौती तो खाकर नहीं आये हो तुम यहां

जाओगे तुम भी आखिरी कपड़ा उतारकर

हम हैं तबाह अपने भी हैं तुमसे परेशां

हालात रख दिया जो बेतरह बिगाड़कर

कैसी हमारी जिंदगी गांवों में आज भी

दो दिन हमारे साथ देखना गुजारकर

चुप रह के देखा सुना खूब सह लिया उन्हें

उनसे सवाल पूछने का अब गुनाह कर

गुमराह हो गए हैं जो जज़्बात की रौ में

उन सुब्ह के भूलों को लो लौटा पुकारकर

महरूम न कर दे कहीं बीमार सभी को

तुम गंद अपने जेहन की फेंको बुहारकर

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