हे श्रमवीर तुम्हारे कुदाल ने
कंटकाकीर्ण मग सुगम किया ।
एक पैर पर थाम लिये जैसे अम्बर
कर्मयोगी सूरज भी देख तुम्हे पिघल गया ।
●
लज्जित हैं कर्मवंचक
अवसरवादी लोलुप तुम्हे देखकर;
प्रतिमान तुम्हे मानते जिजीविषक
स्वाभिमानी देखते तुम्हे मुड़मुड़कर।।
●
तुम्हे देख स्मरण हो आती
कृष्ण की कनिष्ठा पर धारित
गोवर्धन पर्वत की महत्ता!
तुम्हे देख विश्वानर का होता बोध
अंतरहित गर्भित इच्छाधारी
पीपलिका शक्तिभूत सत्ता!
●
स्वेद का छलछल पसीना
तटबंध बन प्रवाह से टकराता;
जैसे प्रवृत्त अर्जुन युद्ध को
समझ कर्मयोग की गीता !
●
चतुष्पद के पशुत्व से
द्विपदी मानव परिष्करण;
पाषाण को पाषाण से काटता
एकपदी मानव आपस्तम्बक!
●
-अंजनीकुमार’सुधाकर’