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कुछ बेबसी ऐसी भी

          आज पहली बार आभास हुआ कि कुछ विवाहित महिलाएं कितनी वेबस और लाचार होती हैं। चाहे वे नौकरी करने वाली हों या घरेलू  महिलाएं दोनों के ही साथ बहुत सारी पाबन्दियां जुड़ी होती हैं।अभी कल की ही तो बात है मिसेज शर्मा पति के दो शर्ट पैंट लेकर गली गली प्रेस वाले की दुकान खोज रहीं थीं। सोमवार को सभी दुकानें बन्द होने के कारण अपने पाॅकेट के प्रेस वाले की दुकान बन्द थी। उन्हें हर हालत में उन दोनों शर्ट पैंट को प्रेस कराना ही था। वे प्रेसवाले

कई खोज में पागल सी हो रही थीं।

  “आप घर में ही क्यों नहीं प्रेस कर लेतीं?”

   रीना जो उनकी पड़ोसी और बहुत पुरानी मित्र भी थीं वे भी उनका साथ देने के लिए उनके साथ

में ही चल रहीं थी , उन्होंने पूछ ही लिया।

  “अरे नहीं जी, उनको पता चल जाता है। उन्हें बाहर से प्रेस किया कपड़ा ही चाहिए।

  “फिर दूसरे प्रेस कपड़े तो होंगे?”

  “नहीं उनको तो यही शर्ट और पैंट चाहिए। जो उन्होंने पहनने के लिए तय कर लिया, वे वही कपड़ा पहनेंगे।”

  “और नहीं हो पाया तब?”

   “तब, तब तो घर को ही नर्क बना देंगे।”

      रीना ने कई बार उनके शरीर पर पड़े नीले निशानों को देखा है। पर कुछ भी न कर सकने की अपनी विवशता के साथ छटपटाहट लेकर वे भी रह गईं।

   ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहाँ पुरुष अपने पुरुष होने के दंभ को बखूबी जीता है । यह समाज ही पुरुष प्रधान है तो उसका अधिकार क्षेत्र और भी

बढ़ जाता है। स्त्री घर से निकलकर कहीं और जा भी तो नहीं सकती और अगर वह निकलना भी चाहती हैं तो बाहर के पुरुष रूपी गिद्धों की तेज जलती हुई आंखों को देखकर ही वह सहम जाती है , डर जाती हैं। मतलब यही है की घर में भी पुरुष का वर्चस्व है और बाहर भी उन्हीं का राज्य है।

   मिसेज वर्मा डेढ़ बजे तक ड्युटी करती हैं फिर दो बजे तक घर पहुँचती हैं। घर पहुँचते ही वह कपड़े बदलकर तुरंत रसोई में घुस जाती हैं। घर में निठल्ले बैठे देवर और सासू माँ के लिए ताजे भोजन की व्यवस्था करने के लिए। अगर एक दिन भी लेट हो जाये तो फिर उनकी खैरियत नहीं। वह बोल भी नहीं सकती क्यों की घर के इज्जत का सवाल जो ठहरा। अड़ोस-पड़ोस के लोग अगर सुनेंगे तो वे लोग उनको क्या कहेंगे ? उनको अपने गाल पर पड़े निशान को भी मेकअप और फाउन्डेशन से छिपाने पड़ते हैं।

   अपनी ही पेमेंट से रोज किराया माँगना किसी के लिए कितना भारी हो सकता है यह वही समझ सकती है जिसको ऐसा झेलना पड़ा हो। ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है। मिसेज शाह को तो एक सूट के कपड़े के लिए भी अपने पति के आगे

मिन्नतें करनी पड़ती हैं। उन्होंने पति प्रेम में आकर अपना अकाउंट ही ज्वाइंट करा रखा है और अब उनकी पूरी पेमेंट उनके पति के हाथों में जाती है। लाखों रुपये की सेलरी में आधी सेलरी उसके पति के खानदान का कर्ज भरने में चली जाती है कुछ

उनके शराब में खर्च हो जाती है और आधे में से घर का खर्च चलता है। उनके पति को मिलने वाली मामूली इन्कम भी उनके पति साहब के शराब के खर्च में ही उड़ जाती है। मिसेज शाह को देखकर ही पता चल जाता है की वह कितनी सारी पीड़ाओं से जूझ रही हैं परन्तु उनके भी मुख पर इज्जत नाम का बड़ा सा ताला लगा हुआ है।

धीरे धीरे इन सारी समस्याओं को झेलने की वह आदी हो गई हैं।लाखों रुपए हजम करने वाला उनका पति उनसे कभी भी सीधे मुंह बात तक नहीं करता। विवाहित होते हुए भी प्रेम से वंचित ही रही। एक कोल्हू के बैल की तरह गृहस्थी के कोल्हू को खींचती ही जा रहीं हैं, मुख पर और आंखों पर पट्टी बांधकर।

   गरीब वर्ग की महिलाएं तो लड़झगड़कर अपने दिल की भड़ास निकाल देती हैं । उनको समाज में अपने इज्जत की उतनी परवाह भी नही होती है वह इसलिए भी की सभी को एक दूसरे की सारी खबर पता होती है किन्तु  मध्यम वर्गीय परिवारों में स्थिति बिल्कुल उल्टी होती है। घर की इज्जत पर दाग लग जायेगा, लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे, मां-बाप तक बात पहुंचेगी तो उनको बहुत कष्ट होगा आदि आदि न जाने कितनी बन्दिशें सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। स्त्री का दिल हजार खण्डों में भले ही विभाजित हो जाये वह उसे रिश्तों के फेविकोल से जोड़कर उसी के सहारे अपनी गृहस्थी की गाड़ी को खींचती ही रहती है।

     आज आधुनिक युग में जब महिलाएं शिक्षित हैं अपने पैरों पर खड़ी हैं तब उनकी ऐसी स्थिति है तो पुराने समय में उनकी क्या स्थिति रही होगी सोचा जा सकता है। निम्न आय वर्ग और उच्च आय वर्ग को तो कोई चिन्ता नहीं होती मगर

सबसे ज्यादा पीड़ित मध्यमवर्ग की महिलाएं ही होती हैं। पहले वैवाहिक सम्बन्ध को बचाने की ख्वाहिश फिर बच्चों की शिक्षा में व्यवधान नहीं आये इसका डर  फिर बच्चे बड़े हो गये हैं उनको कैसा लगेगा? इन्हीं सब उलझनों से जूझते हुए उसकी जिन्दगी भी पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाती है। लिपेपुते चेहरों के पीछे का दर्द छिपा ही रह जाता है।

डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”    दिल्ली

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