(अर्चना त्यागी)
वह पगली थी। लोग ऐसा ही कहते थे। शायद उसकी बेतरतीब सी वेषभूषा देखकर। भाव भी वह अजीब तरह के ही बनाती थी। मैंने भी आते जाते हुए एक दो बार उसे देखा था। मैले कुचैले कपड़े, सूखा बदन और बिखरे बाल। कोई भी देखकर अनुमान लगा सकता था कि महीनों से उन्हें नहीं धोया गया था। हाथों पैरों पर जगह जगह मैल के चकते इस बात का प्रमाण देते थे कि सफाई जैसे शब्द से उसका कोई सरोकार नहीं था। बोलते हुए वह थोड़ा तुटलाती थी। उसकी इस कमी का लोग खूब मजाक बनाते थे। छोटे बच्चे उसके पास इकट्ठे हो जाते और अपनी समझ से उससे कुछ भी बुलवाते।
जिन्हे वह अपनी तोतली जबान से अजीब से ढ़ंग से बोलती थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक वीरानी छाई रहती। मैंने उसका चेहरा पढ़ने की कई बार कोशिश की। परन्तु उस वीरानी के सिवा उसके चेहरे पर कोई और भाव नहीं ठहरता था। हंसते हुए, रोते हुए चेहरे पर एक ही भाव रहता। मैंने कभी बात नहीं की उससे। हां पड़ोस के बच्चों से उसकी बातें हर रोज सुनने को मिलती। बच्चों के मनोरंजन का माध्यम थी पगली। वह किसी से झगड़ा करती, आते जाते वाहनों पर पत्थर फेंक देती। और भी न जाने क्या क्या। उसकी एक लड़की भी थी। चार या पांच वर्ष की रही होगी। उसे उंगली पकड़कर अपने साथ ही रखती। बच्चों के बीच में भी नहीं जाने देती।
न जाने किससे उसे बचाना चाहती थी। शायद वक्त के थपेड़ों से। जो वह स्वयं खाती अा रही थी। उसके पूर्व जीवन के विषय में जानकारी शून्य थी। तरह तरह की बातें करते थे लोग उसके बारे में। किसी से मैंने यह भी सुना था कि वह एक जमींदार घराने की बहू थी। गरीब परिवार से थी। पति और ससुर की अय्याशी को सहन नहीं कर पाई और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। सास ने घर से बाहर कर दिया। राम जाने इस बात में कितनी सच्चाई थी। सच्चाई थी भी या नहीं। कुछ लोग कहते थे कि गरीब घर से थी और कुरूप भी इसलिए ससुराल वालों का व्यवहार ठीक नहीं था। निरपराध मन को ऐसी ठेस लगी कि पागल हो गई।
ये बातें सच थी या झूठ, नहीं जानता था। सच कुछ भी रहा हो परन्तु उस बच्ची के बाप से सवाल करने का बहुत दिल चाहता था कि उसने पैदा होने के बाद उसे ठोकरें खाने के लिए क्यूं छोड़ दिया। उस बच्ची का कोई भविष्य नहीं था। सड़क पर पैदा होकर, वहीं बूढ़ी होना या किसी दुर्घटना में चल बसना। कैसा क्रूर मजाक था प्रकृति का उन दोनों के साथ। पूरे शहर में उन्हें अपना कहने वाला कोई न था। मेरा मन बहुत परेशान होता था उनके बारे में सोचकर। परन्तु चाहकर भी कुछ न कर पाती। अपने रिश्तेदार के घर रहकर पढ़ाई कर रही थी। जैसे तैसे अपना समय निकाल रही थी।
ये बातें सच थी या झूठ, नहीं जानता था। सच कुछ भी रहा हो परन्तु उस बच्ची के बाप से सवाल करने का बहुत दिल चाहता था कि उसने पैदा होने के बाद उसे ठोकरें खाने के लिए क्यूं छोड़ दिया। उस बच्ची का कोई भविष्य नहीं था। सड़क पर पैदा होकर, वहीं बूढ़ी होना या किसी दुर्घटना में चल बसना। कैसा क्रूर मजाक था प्रकृति का उन दोनों के साथ। पूरे शहर में उन्हें अपना कहने वाला कोई न था। मेरा मन बहुत परेशान होता था उनके बारे में सोचकर। परन्तु चाहकर भी कुछ न कर पाती। अपने रिश्तेदार के घर रहकर पढ़ाई कर रही थी। जैसे तैसे अपना समय निकाल रही थी।
परन्तु कल की घटना ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया। उसका भावशून्य चेहरा तब से ही मेरी आंखों के सामने घूम रहा है। जबसे छोटी बहन ने मुझे उसके बारे में आकर बताया।
न जाने कहां से उसकी बेटी टॉफी कहना सीख गई थी। बार बार टॉफी की जिद कर रही थी। सड़क पर करके एक दुकान थी, उसी की ओर इशारा कर रही थी। उस बिचारी को क्या मालूम था। बेटी की जिद पूरी करने उसकी उंगली की दिशा में चल पड़ी। दुकान वाले ने दया करके कुछ टॉफी उसकी हथेली पर रख दी। पर अगले ही क्षण सारी टॉफी उसकी हथेली से फिसलकर सड़क पर बिखर गई। बेटी को सड़क किनारे छोड़ पगली टॉफी उठाने लगी। तेज रफ्तार से चलते एक ट्रक ने उसकी जीवन लीला वहीं समाप्त कर दी।
धुआंधार दौड़ती सड़क पर कौन था उसकी परवाह करने वाला। उसकी भावना को समझने वाला। क्या हुआ होगा सोचा नहीं जा सकता। कुछ ही देर में भीड़ इकट्ठी हो गई। बच्ची जो अब तक दूर खड़ी थी मां के पास अाई और उसके हाथ से टॉफी लेने लगी। भीड़ को देखकर मां के खून से लथपथ शरीर के ऊपर लेटकर रोने लगी। दुकान वाले ने अपनी दुकान में ले जाकर दूसरी टॉफी दी। इतने में पुलिस अा गई। पगली के मृत शरीर को उठा कर हस्पताल भेज दिया गया पोस्टमार्टम के लिए। बच्ची को बलगृह में। अगले दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां बन गई पगली की कहानी। मैं उस अनजान बच्ची के बारे में सोचती रही। क्या एक टॉफी की कीमत जान पाएगी कभी? अब कौन लाकर देगा उसे अपनी जान पर खेलकर टॉफी ?