मेरे हिस्से की धूप तब खिली ना थी
मैं भोर बेला से व्यवस्था में उलझी थी
हर दिन सुनती एक जुमला जुरूरी सा
‘कुछ करती क्यूं नहीं तुम’ कभी सब के लिए
फुलके गर्म नरम की वेदी पर कसे जाते
शीशु देखभाल को भी वक्त दिये जाते
घर परिवार की सुख सुविधा सर्वोपरी
हाट बाजार की भी जिम्मेदारी पूरी
तंग आ गयी सुनते सौ बार यही बात
एक दिन छोड घर का व्यवस्थित व्यापार
पहचान अपनी पाने निकल दायरो से बाहर
खुद को साबित करने ही आ गई कमाने को
नाम शोहरत रुतबा रुआब और पैसा मिला
घर आँगन से निकल आसमाँ कदमों पे गिरा
बिना मोल लिए जो पल दूसरो को दिया
दूसरा पहलू भी अब जिन्दगी का खुल रहा
वक्त नहीं अब घर गृहस्थी सम्भाली जाये
मन के कौने भी रीते हुए से झोली में पडे
दौर सुनने का बदला है ना सुनाने का ही
“घर भी देखो” ये आस सबने फिर लगा ली
ये कैसा जीवन है ये कैसी बेडियाँ है
जेसा चाहा सबने वैसी बन भी गयी अब
फिर भी जुमला वही पुराना साथ रहता है
“कुछ करती क्यूं नहीं तुम” कभी सब के लिए
डॉ अलका अरोडा
प्रो० देहरादून