खूबसूरती लिपटी मिली हर निगाह के त्रास में
बेवजह तलाशा करते हैं लोग जिस्म ए लिबास में
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कोरोना काल के दौरान कितने ही लोग बेरोज़गार हुए, कितने ही ज़रूरतों के चलते अपनी ही निगाह में शर्मसार हुए।
सच है किसी के आगे हाथ फैलाना एक साथ कई मौतें मरने के बराबर है।अपनी आत्मा को गिरवी रखकर किसी के आगे अपने बच्चों के लिए गिड़गिड़ाना, उस पर माँगी गई मदद के समीकरण हल करना, हर उस माँ की त्रासदी है जिनके घरों में लॉकडाऊन के साथ, जबरन सेवानिवृत्ति के सम्मन भेजे गए।
एक माँ के दिल के अलावा दुनिया में ख़ूबसूरती का कोई दूसरा विकल्प नहीं है, जो हर स्थिति में अपने बच्चों को और अपने परिवार को, सारथी का संदेश देकर, उनका मानसिक सँबल बनती है।
लेकिन हम ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ सुँदरता को रंग से देखा जाता है,शिक्षा को नंबरों से और सम्मान पैसा देखकर दिया जाता है।
हमारे देश में ऐसे कितने लोग हैं जो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए दिन रात एक करके भी अंग्रेज़ी मीडियम के प्राइवेट स्कूलों की फ़ीस नहीं जुटा सकते।
एैसे कितने ही परिवार हैं जो धनाढ्य परिवारों की तरह अपने बच्चों को तकनीकी उच्च शिक्षा के अवसर मुहैया नहीं करवा सकते क्यूँकि दो वक्ती रोटी का जुगाड़ ही मुश्किल से हो पाता है।
जिस वर्ग के बच्चे पढ लिखकर कुछ बन जाते हैं, या तो वो विदेशों में जाकर सैटल हो जाते हैं, या फिर अपने ही देश में एक बँद क़िले के अंदर बैठकर अपनी मनमानी से अपने ही देश की जनता को मानसिक अवसादी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
एक भी शिक्षित अगर भारतीय संस्कृति के बीज बोकर एक एैसे गुरूकुल की स्थापना का संकल्प ले ले, जहाँ किसी भी प्रकार की नकारात्मकता और मानसिक शोषण के शिकार पर प्रतिबंध हो, तो वो दिन दूर नहीं जब वैदिक संस्कृति का पुनर्वास संभव होगा।
जिनके पेट और भँडार पहले से ही भरे हैं वो लोग मिलकर उन जगहों पर भंडारे लगाते हैं जहाँ से उन्हें वोट मिलने की संभावना होती है।
जिनके पेट और भँडार दोनों ख़ाली हैं वो रूखा-सूखा भी बाँटकर खाते हैं,यही उस मातृशक्ति की ख़ूबसूरती है, जो उम्मीद के दीप प्रज्वलित रख कर,अपने परिवार को माँग कर पेट भरने की मानसिक त्रासदी की आड़ में हर पल एक मौत की वेदना झेलने से बचाती है।
वैदिक संस्कृति की माताएँ भले शिक्षित नहीं थीं लेकिन वास्तविक शिक्षा का अर्थ बखूबी जानतीं थीं।
इक्कीसवीं सदी की माताएँ उच्च शिक्षित भी हैं और कमाना भी जानतीं हैं, लेकिन उन परिवारों की माताओं की शिक्षा पर ही आज सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है, जिनके पास ज़रूरत से ज़्यादा ज्ञान भी हैं और उस ज्ञान का अभिमान भी है, लेकिन एक दूसरे के प्रति संवेदनशील हृदय की धड़कनों को जिम, क्लब, किटी पार्टी, फ़ीमेल टॉक्सिंज़, डाँस पार्टीज़, शॉपिंग,विदेश भ्रमण, लेडीज़ नाइट आऊट, पर्सनल मीटिंग्ज़ और स्वार्थ सिद्धि की दिशा देकर उन्होंने अपने दायित्वों से पल्ला ही झाड़ लिया है।
संपन्न परिवारों की मदद से हवाओं में उड़ती माताओं द्वारा कुछ मददगार हाथ इसलिए भी रोक दिए जाते हैं, क्यूँकि परस्पर ईर्ष्यालु और प्रतिस्पर्धा के वायरस कोरोना रूपी महामारी से भी अधिक जानलेवा साबित किए जा रहे हैं।
कारण कुछ भी हो निवारण केवल जागृति है।अपने दीप आप बनो।अपनी राह खुद चुनो।अपने ख़्वाब खुद बुनो।ब्रह्माण्ड की हर शक्ति पर सबका बराबर का अधिकार है।इसलिए अपने हाथ सेवार्थ उठाओ और मातृशक्ति को अपमानित न करके भारतीय संस्कृति का पुनर्वास करवाओ।
जय हिंद
जय भारत