“विगत महीनों में जाने कितनी बार दुहराया, ‘मुझे माफ कर दो, तारिका!’ पर मन का बोझ कम नहीं होता, क्योंकि कृत्य माफी के योग्य था ही नहीं। पर जाने क्यों, पार्क की इस बेंच पर बैठते ही तुम्हारे यहीं कहीं होने का एहसास जागृत हो उठता है, क्योंकि यह बेंच हमारी पसंदीदा जगह थी, जब हम प्रेम में थे।”
“हाँ अनुज! मैं भी कहाँ भूल पाई हूँ। दिल में इतना मलाल लिए भी मिलने चली आती हूँ। दोष तुम्हारा था या अम्मा जी का, राम जाने? पर सूली पर मुझे चढ़ना पड़ा! प्रेम विवाह का ऐसा कंटक लगा था दामन को कि जिव्हा अपने माता-पिता को सच न बता पाई। बड़े ताव में, तुम्हारा हाथ थाम अपना घर छोड़ा था। कैसे कहती कि मेरी पसंद गलत थी,वे सही थे? खुद को गलत साबित होता देख बस घुटती रही।
तुम पिता नहीं बन सकते थे,इससे हमारे प्रेम में रत्ती भर भी फर्क नहीं आता।पर तुम्हें हमारे रिश्ते से ज्यादा अपने वंशबेल की चिंता थी। तुमने हर सही- गलत रास्ता अपनाया। और तो और, एक पाखंडी बाबा की बातों में आए,जिसने तुम्हें और अम्मा जी को पुरातन काल के नियोग पद्धति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि तुमलोग मुझे जबरन उसके हवाले करके चले आए! चीखती रह गई थी मैं। फिर एक कमरा और जाने कैसी लोबान की महक, उसके बाद अर्ध बेहोशी सी…”
“पर मैं उस पापी का अंश नहीं ढो सकती थी।तुम उससे मुझे मुक्त भी नहीं होने दे रहे थे। इसलिए मैंने अपने आप को ही खत्म कर लिया। क्षणिक फैसला था मेरा, वरना कानूनन तुम सजा के योग्य थे। यह सजा भी कोई कम नहीं है, यह घुटन, यह पछतावा, जीवन भर तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगी।”
“फिर भी तारिका! एक बार अपनी जुबां से कह दो कि मुझे माफ किया। तुम्हारे बाद मैं कभी ठीक से सो नहीं पाया।”
उसे अपने-आप से बातें करता देख पार्क में गुजरते हुए एक भले मानस ने पूछा, “भाई साहब! तबियत ठीक न हो तो कुछ मदद करूँ?”
नीना_सिन्हा,पटना,बिहार।