विधा:-विधाता छंद
मनाते होलिका मन से, सभी त्यौहार से बढ़कर।
बनें पकवान पूजा के, गुलरियों माल घर रख कर।
बड़ी होली रखें गावों, लकडियाँ बीच में रख कर।
सुहाना फाल्गुन महीना, मनाते पूर्णिमा तिथि पर॥
जलाते पूजकर होली, सभी जन फाग गाते हैं।
जलाने घर रखी होली, वहीं से आग लाते है।
नये गेंहू भुजीं बाली, बने पकवान खाते हैं।
सफाई गेह की करते, रॅंगोली भी बनाते हैं॥
धुलेड़ी दूसरे दिन को, खिलेगी धूल कीचड़ से।
दिन मने शाम को रंगों, गले मिल कर बड़े मन से।
भुला देते बुराई को, जलाकर होलिका दिल से।
खिलेगी रंग पांचें तक, गुलालों से अबीरों से॥
खिले होली जगत जानी, प्रमुख है केन्द्र बरसाना।
लुगाई मारती लाठी, बचाते लोग बन कान्हा।
बचाते ढाल से कान्हा, सहेलीं राधिका नाना।
हंसी से खेलतीं होली, बनी ससुराल जो कान्हा॥
मौलिक रचनाकार- उमाकांत भरद्वाज (सविता) “लक्ष्य”, पूर्व शाखा प्रबंधक एवं जिला समन्वयक,म.प्र.ग्रामीण बैंक,भिण्ड (म.प्र.)-477001