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लालच में मुर्गी का पेट चीरना बेमानी है और बेईमानी भी

30 मई, हिन्दी पत्रकारिता दिवस के बहाने

30 मई 2024 को भारतीय हिन्दी पत्रकारिता 198 वर्षों की हो गई। दो सौ साल होने में केवल दो साल शेष हैं, यह एक लंबा समय है। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अपना अलग महत्व रखने वाला समाचार-पत्र “उदन्त मार्तण्ड” हिन्दी का प्रथम समाचार पत्र, 30 मई 1826 को कलकत्ता से साप्ताहिक समाचार-पत्र के रूप में प्रकाशित हुआ था। इसका प्रकाशन युगल किशोर शुक्ल ने किया, कुछ विद्वान उन्हें जुगल किशोर शुक्ल भी कहते एवं लिखते हैं, दोनों एक ही हैं।

हिन्दी के  इस प्रथम साप्ताहिक समाचार-पत्र “उदन्त मार्त्तण्ड” के प्रकाशन से ही हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। युगल किशोर शुक्ल हिन्दी के प्रथम पत्रकार हैं। तब तक कोलकाता से ‘द बेंगाल गजट ऑर केलकटा जनरल एडवरटाइजर’ (अँगरेजी, 1780), ‘समाचार दर्पण’, ‘बंगाल गजट’ (बांग्ला, 1818), ‘जाम-ए-जहाँनुमा’ (उर्दू, 1822), ‘मिरात-उल अखबार’ (फारसी, 1822) का प्रकाशन होने लगा था। परन्तु हिन्दी का कोई समाचार-पत्र नहीं निकला था। इस अभाव की पूर्ति कानपुर से कोलकाता पहुँचे युगल किशोर शुक्ल ने की।

“उदन्त मार्त्तण्ड” के पहले अंक में पत्र-प्रकाशन का उद्देश्य घोषित करते हुए, युगल किशोर शुक्ल ने लिखा – “यह उदन्त मार्त्तण्ड अब पहिले पहले हिन्दुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अँगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है……. देश के सत्य समाचार हिन्दुस्तानी लोग देख कर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओ पराइ अपेक्षा जो अपने भावों के उपज न छोड़ें, इसलिये बड़े दयावान करुणा ओ गुणनि के निधान सबके कल्याण के विषय श्रीमान गवरनर जनेरेल बहादुर की आयस से अैसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाठ ठाठा।” युगल किशोर शुक्ल की यह घोषणा बताती है कि ‘हिन्दुस्तानियों के हित के हेत’ और समाचारों के माध्यम से ‘अज्ञ जन को जानकार’ बनाना हिन्दी पत्रकारिता की पहली मूल चिंता है और पहली प्रतिज्ञा भी। आज 21 वीं सदी में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों (विशेष कर हिंदी भाषा के) में इसका अभाव दिखाई देता है।

पत्रकारिता अपने आप में कोई स्वतंत्र विषयवस्तु नहीं। समाज में, दुनिया में हमारे चारों ओर जो घट रहा है, उसकी खबर लेना और खबर देना ही पत्रकारिता है। यह समाज को सूचित या खबरदार करने का कर्तव्य है। फिर व्याख्या-विश्लेषण हैं, जो शिक्षित करने वाली भूमिका है। स्वीकार्य और अस्वीकार्य की परख करने का विवेक जगाती है। यह गुण लोकरंजन है, मनोरंजन नहीं; जो मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने में भूमिका निभाता है। हाँ, एक बात और, बाजार बुरी चीज नहीं है। बाजार हमेशा से रहा है और आगे भी रहेगा। परंतु सहायक और सेवक बनकर, स्वामी बनकर नहीं। बुरा है अति बाजारू हो जाना अर्थात हवस और लालच का बढ़ना और मानवता का गला घोंट देना, उसे पतन की ओर धकेलना।

21 वीं सदी में जब दो वर्ष बाद हिंदी पत्रकारिता के दो सौ साल पूरे होने वाले हैं तो जरूरी है कि जो छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई करके निकलते है। उनको वर्तनी, लिंग व्याकरण की समझ के साथ-साथ न्यूज सेन्स यानी समाचार की समझ भी होनी जरूरी है, सच कहूँ तो अपने को ग्लैमर से बचाना ही पत्रकारिता को बचाना है। इसके लिए युवा पत्रकारों को  स्वाध्याय की प्रवृत्ति को विकसित करना होगा। आज हिंदी के अख़बार में उनकी खबरों में कोई दमखम नहीं दिखाई देता है। समाचार-पत्र चाहे, गलतियों से भरा हो, पर वो प्रोडेक्ट है। समाचार-पत्र की नीति और नेताओं की दुरभि संधि खबरों में साफ-साफ दिखती है, यानी किसी बड़ी खबर के पीछे क्या खिचड़ी पक रही है। खबर का इतना हरण ठीक नहीं है। सोने के ढेर सारे अंडों को एक ही बार में पाने के लालच में मुर्गी का पेट चीरना बेमानी है और बेईमानी भी। इससे अंडे तो नहीं ही मिलेंगे, मुर्गी भी जान से चली जाएगी।

डॉ. मनोज कुमार

लेखक सार्वजनिक उपक्रम में राजभाषा एवं जनसंपर्क अधिकारी हैं।

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