वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही,पूर्वांचल के बाग झूला गीतों से चहक उठते हैं और कजरी गायन की प्रथा का पालन शुरू हो जाता है,
भाद्रपद कृष्णपक्ष की तृतिया को कजरी तीज मनाई जाती है,
इस दिन महिलाएं व्रत करती हैं और रतजगा करते हुए कजरी गायन करती हैं।
कजरी मे मुख्यतः संयोग वियोग और वर्षा ऋतु के वर्णन देखने को मिलते हैं,
कजरी का विकास लोक संगीत के साथ साथ उप शास्त्रीय गायन मे भी बहुत सुंदरता के साथ हुआ
खास तौर से बनारस घराने के उप शास्त्रीय संगीत मे कजरी के रंग खुबसुरती से निखरते हैं,
१.”आज मन ले गयी झांके झरोखे
झुलनिया वाली रे दईया.. “
२.” चललि नहनवा एरी मदमाती रे
गुजरिया रामा… “
सोरहों सिंगार सोहे, एरी हथवा मे
सोने की गगरिया रे हरि…। “
३.”तरसल जियरा हमार हो,
नइहर मे,
बाबा हठ कइले गवनवो न दिहले
बीत जाला बरखा बहार हो,
नइहर मे.. “
इत्यादि कजरियाँ राग देश, तिलंग, पीलू इत्यादि रागों मे गाया बजाया जाता है,
इनकी लय की खासियत यह है की, थोड़ा अंश संवाद के जैसे धीमी लय पर फिर अंतरा चंचल लय पर प्रस्तुत कर वापस धीमी गति पे मुखडा लाने पर श्रोता गणों को बड़ा आनंद आता है l
बनारस की कजरी मे ठुमरी सम्राट पण्डित महादेव प्रसाद मिश्रा जी , पद्म विभूषण विदुषी गिरिजा देवी जी, सिद्धेश्वरी देवी,सविता देवी , पूर्णिमा चौधरी इत्यादि कलाकारों ने अतुलनीय यश अर्जित किया l
मिर्जापुरी कजरी लोक गीत के रूप मे ढली होने के कारण काफी लोकप्रिय रही है,
विंध्याचल धाम मे प्रत्येक वर्ष कजरी महोत्सव मनाया जाता है
कजरी मे, सावन मे नवविवाहिता के मायके जाने की प्रथा का वर्णन , भैया, बाबुल, ननद, आदि पारिवारिक प्रसङ्गों का वर्णन भी देखने को मिलता है,
साहित्यिक संसार मे अमीर खुसरो की -” बाबा को भेजो की सावन आया ” , , बहादुर शाह जफर की -” झूला किन डारो अमरैया “आदि की लिखी कजरियाँ बहुत लोकप्रिय हैं ,
उत्तर भारत मे कजरी के साथ झूला गीतों का प्रचलन भी खूब है,
-‘ सिया संग झूलें बगिया मे राम ललना”
और -” झूला धीरे से झुलाओ बनवारी अरे सवारिया ना ” इत्यादि झूला गीत राम और कृष्ण के प्रसंगों मे सुनने को मिलते हैं l
सावन की वर्षा के के साथ चहकती, लोक संगीत की माटी के साथ महकती कजरी और झूला गीत के स्वर मन को सुकून और हर्षोल्लास से भर देते हैं।
- प्रियंवदा मिश्रा मेघवर्णा