कविता मल्होत्रा (स्थायी स्तंभकार-उत्कर्ष मेल, कवियित्री एवं समाजसेवी)
आज से तीन महीने पहले कब किसी ने सोचा था कि सरपट भागती जीवन की रफ़्तार अचानक यूँ थम जाएगी कि अगले पल साँस लेने से पहले भी सोचना पड़ेगा और साँस छोड़ने की दशा भी अकल्पनीय हो जाएगी।
सच है! परिवर्तन ही संसार का शाश्वत नियम है, लेकिन इस परिवर्तन को सहज स्वीकारना किसी को अभी तक नहीं आया।
अब भी राहत सामग्री बाँटने की बजाए हर तरफ़ अखाड़ों की उठापटकीय चालें परोसी जा रही हैं, जिनसे न तो किसी ज़रूरतमंद का पेट ही भरेगा और न ही किसी भी प्रकार का पोषण ही मिलेगा।
संसार के सत्तासीनों का एक दूसरे पर वार और देश के सत्तसीनों का परस्पर दोषारोपित प्रहार क्या किसी भी परिस्थिति को अमन की दिशा में मोड़ पाएगा?
प्रकृति ने अपना अवांछित कचरा उगल कर ये तो तय कर दिया है कि अब किसी भी सूरत में वो किसी भी प्रकार का असंतुलन बर्दाश्त नहीं करेगी और ईश्वरीय सत्ता ने भी अपनी प्रतिमाओं के पूजन के समस्त कपाट बंद करके केवल सृष्टि के कल्याण का इशारा किया है, इसलिए एक दूसरे पर दोषारोपण करने और परिस्थिति पर चुटकुले, काव्य, कहानियाँ और मज़ाक़ गढ़ने से बेहतर है उज्ज्वल एवँ सार्थक भविष्य के लिए काम करने का ढँग और जीवन जीने की कला को तय करने की ज़िम्मेदारी हर व्यक्ति उठाए।
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न मंदिरों में विनती न गुरुद्वारों में अरदास करो
न गिरजों में प्रार्थना न रमज़ानों में उपवास करो
सब में रब,हर आँख की नमी का अहसास करो
सुखदुख सबके साझे,मिल के स्नेहिल रास करो
विवेकानंद सा ज़हन,मदर टेरेसा जैसा वास करो
लम्हों को दाँव पर लगा कर सदी को ख़ास करो