यद्यपि यह एक सार्वभौमिक विषय है , किसी स्थानविशेष से ही सम्बद्ध नही। मानवता के नाम पर कलंक समझी जाने लायक यह समस्या पुरुषों की सबलता के आदिकालीन अहंकार से जुड़ी है। किन्तु आज भी सभ्यता के शिखर पर पहुँचने का दावा करनेवाला यह जगत महिलाओं के साथ इस प्रकार के व्यवहारों को अंजाम दे सकता है, यह सोचकर बहुत आश्चर्य के साथ कष्ट होता है।समस्या है महिलाओं की हत्या की।
महिलाओं की हत्या के मामले एशिया मे सर्वाधिक मिलते हैं।तत्पश्चात अफ्रिका और अमेरिका में भी। एशियाई देशों में भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित माना गया है एक वैश्विक सर्वे के अनुसारभारत यौन हिंसा, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के कारण महिलओं पर अत्याचार की दिशा में प्रमुख स्थान रखता है।और यहभी कि निर्भया कांड के उपरांत विश्व मान्यताओं के अनुसार इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं हुआ। उपरोक्त कथन को हम सच तो नहीं मान सकते । यह नजरिया इस सम्बन्ध में भारत की संवेदनहीनता को दिखाने की चेष्टा करना हो सकता जो सर्वथा अनुचित है। इसतरह की घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो समुचित कार्रवाई होती ही है जागरुकता आ रही है। हर जगह इसके विरुद्ध आंदोलन हो रहे हैं। पर उस जंगली आदिम मानसिकता को क्या कहा जाए जो स्त्रियों को अभी भी मात्र उपभोग की सामग्री समझती है ,सामाजिक जीवन में उसके स्थान को नगण्य मानती है और छोटे से छोटे मामले में भी आवेश पर काबू न कर उसकी हत्या कर डालती है।? दोष मानसिकता का है जो हर सभ्यता के भीतर से झाँकने को सदैव तत्पर होती है।
जिस ओर मनुष्य अब धीरेधीरे आकृष्ट होता जा रहा है, वस्तुतः यह सभ्यता की पराकाष्ठा के साथ साथ जंगली जीवन की शुरुआत है। स्त्रियों के साथ जुड़ी हुई आज की समस्याएँ कमोवेश सांस्कृतिक समस्याएँ हीहैं।सभ्यता के जोश ने संस्कृति को सदैव दुरदुराया है परिणामतः इस सभ्यता पर कई प्रश्नचिह्न खड़े हो गए हैं। कुछ विपरीत भाव रखते हुए बड़े बड़े विद्वानों ने कहा है कि जब संस्कृतियाँ नष्ट होने लगती हैं तो सभ्यता जन्म लेती है शायद तभी इसकी आवश्यकता पड़ती है।एक नये आन बान के साथ वह संस्कृति की परिभाषा बदलनी चाहती हैऔर अपने इष्ट स्वच्छंद रूप में स्वच्छंद वातावरण का सृजन कर मानवता को तार तार कर देती है। सभ्ता की स्वच्छंदता मानवता के सर्वोच्च स्थान पर पहुँचने का दावा कर कई गम्भीर भूलें कर देती है जिसका खामियाजा एक सरल पारंपरिक जीवन प्रणाली को भुगतना पड़ता है। स्वतंत्रता नहीं स्वच्छंदता इसका मूल है अतः इस शब्द का प्रयोग ही समुचित जान पड़ता है।
अभी अभी जिस एक हत्याकांड की विशद चर्चा हो रही है, तथ्यों को खँगाले जा रहे हैं,वह है श्रद्धा हत्याकांड। यह कोई अकेला हत्याकांड नहीं वहुत सारे राज्यों के विभिन्न हिस्सों से ऐसीखबरें मिलती रहती हैं ।सबों को एक ही ऐनक से नहीं देखा जा सकता ।हलाँकि सबों की स्थितियाँ भिन्न है,पर श्रद्धा जैसी अन्य और स्त्रियों की समस्याएँ जो लिव इन से जुड़ी हैं वे अक्षम्य हैं ,भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हैं ।
वस्तुतः जिस सभ्यता के हम आधुनिक जीवन में परिपोषक हो गये हैं वह सभ्यता फाल फ्रॉम ग्रेस यानि जीवन के शालीन सौन्दर्य से पतन की ओर या उसके शाश्वत ,अनादि स्वरूपों सेपतन की ओर उन्मुख हो चला है।वस्तुतः जिस गम्भीरता से हम आधुनिक सभ्यता के मूल आधारतत्व ह्यूमैनिटी अर्थात मानवता की बातें करते हैं, ई सा के छः हजार या उससे भी पूर्व अस्तित्व में आए (विद्वानों के अनुसार)हमारे वेदों के जीवन को जीरहे हमारे ऋषियों मुनियों द्वारा स्थापित संस्कृति का मूल प्राण हुआ करता था।आज उसकी राहें भटक गयी हैंऔर मूल मानवीय प्रकृति का जंगलीपन जो असामाजिकता को जन्म देता है ,उसे ही मानवता मान बैठे हैं।
अत्यधिक स्वतंत्रता नेलिव इन जैसी मानसिकता को जन्म दिया, जिसने विवा ह की उपयोगिता की हर दृष्टि से खिल्ली सी उड़ायी है। सामाजिकता का ताना बाना यहीं छिन्न भिन्न हो जाता है।व्यक्ति स्वातंत्र्य की हदें पार हो जाती हैं।
भारतीय संस्कृति इसकी इजाजत नहीं देती।बड़ी कठिनाई से सुधारों की सीढियाँ चढ़ते चढ़ते हमारे पूर्वजों नें वैदिक काल से हीसंभवतः विवाह जैसे संस्कारों को सामाजिक जीवन से जोड़कर नारी पुरुष की तद्जनित उच्छृंखलता पर अंकुश लगा देने का कार्य किया है।ऋग्वेद में भी बेटी विवाह के लिए पिताओं भाइयों , वर और और उनके सम्बन्धियों के साथ सम्बन्ध स्थापित होने की प्रक्रियाओं का उल्लेख है। यह संस्कार पारिवारिक सामाजिक जीवन को उत्कृष्ट स्वरूप प्रदान करने हेतु विहित था।यह संस्था पारिवार की एक सुस्थ परिभाषा लेकर आदर्श समाज को एक उत्कृष्ट रूप देने के लिए बनी थी। इसके सुपरिणाम सामने आते गये। हमें यह कहने में हिचक नहीं कि भारतीय संस्कृति के इस स्वरूप ने अन्य देशों को भी प्रभावित किया परिणामतः उनके आकर्षण का भी केन्द्र बनता गया। स्थायित्व और सुरक्षा दो प्रधान कारक तत्व थे। अपने बिगड़े हुए स्वरूप में भी आज स्थिति कमोवेश वैसी ही है।
किन्तु पाश्चात्य प्रभावों के गहरे रंग ने हमेंव्यक्तिवाद का पाठ पढाकर इस संस्था पर अविश्वास पैदा करना सिखा दिया।विवाह मानव स्वतंत्रता पर कुठाराघात करने वाला माना जाने लगा।
अति आधुनिकता ने लिव इन जैसी स्थितियों को मान्यता देनी आरम्भ की और मानव अधिकारों की रक्षा करनेवाली संस्थाओं ने भी इसे मान्यता देने में हिचकिचाहट प्रदर्शित नहीं की। बंधनों में अगर आध्यात्मिकता का अभाव हो तो ऐसे भावनात्मक बंधन स्थायी नहीं हो सकते । यह सामाजिक बंधन नहीं होने के कारण श्रद्धा जैसे काँड की संभावना अधिक हो ही सकती है।
एक पुरुष प्रधान समाज में कई तरह से स्त्रियों का शोषण हो सकता है। हत्या तो इसकी चरम परिणति है। अफ्रिकन समाज में तो मात्र स्त्री होने के कारण यह दंड उन्हें भुगतना होता है। हालाकि वहाँ भी इस स्थिति के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। पर जैसा कि अभिव्यक्त किया गया , मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। समाज मे उनकी पचास प्रतिशत अनिवार्यता को समझने की आवश्यकता है। इन सबों के लिए बुद्धि का संस्कारित होना अति आवश्यक है।
यों तो स्त्रियों की हत्या के सिलसिले जन्म के पूर्व भ्रूण हत्या से ही शुरु हो जाते हैं ।बहुत सारे राज्यों में यह अब भी प्रगट अथवा छिपे तौर पर जारी है। ऑनरकिलिंग एक और भयावह स्वरूप है। परिवार की इच्छा के विरुदध अथवा अन्य जाति , धर्म के पुरुष के साथ विवाह इसके मूल कारणों मे से एक है। दहे ज एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है। अब एक अन्य नाम लव जिहाद का सुनने में आता है।धर्म परिवर्तन के लिए प्रेम जाल मे फँसाना और उद्येश्य पूर्ति नहीं होने पर हत्या कर देना, इसका स्वरूप जाना जाता है।रेप और तद्जनित हत्याएँ तो आम बात हो गयी हैं। एक विकृत मानसिकता के परिचायक ये हत्याएँ न्यायालय से मात्र न्याय माँग सकती हैं ।उस मानसिकता को बदलना तो मात्र सांस्कृतिक शिक्षा से ही सम्भव है।
आफताब और श्रद्धा के साथ क्या क्या हुआ , यह अभी भी न्यायिक प्रक्रियाओं के अधीन है । इसे हम इस श्रेणी में रख सकते हैं अथवा नहीं, कहना कठिनहै पर भारतीय संस्कृति इसकी इजाजत नहीं देती। लिव इन के जरिये इस प्रकार किया गया कोई अपराध इस परंपरा पर सवाल अवश्य उठाता है , जिसे हमारे समाज का एक बौद्धिक वर्ग स्वीकार करने को विवश है। यह नारी स्वातंत्र्य की सीमाहीन असह्य अभिव्यक्ति है ।
भारतीय संस्कृति पुरुष नारी के विवाहपूर्व सम्बन्धों की वैधता परप्रहार करती है। विवाहपूर्व सम्बन्धों के आधुनिक प्रचलित रूप पश्चिम के अंधानुकरण हैं। हमारे समक्ष प्रश्न है कि हम पश्चिम को अपने संस्कारों की शिक्षा दें अथवा उनके टूटते संस्कारों को स्वयं अपना लें। निश्चय ही हमारे संस्कारों में मानवीयता और सामाजिकता की रक्षा करने की शक्ति है। उसे वैश्विक बनाना हमारा कर्तव्य है।
हाँ, तो विवाह जन्य संस्कृति की रक्षा के लिए उसमे बड़े बुजुर्गों और समाज को जोड़ने की पुनः आवश्यकता है। विवाह चाहे दो धर्मों ,अथवा दोजातियों के मध्य ही क्यों न हो , परिवार केवरिष्ठ लोगों के अनुभवों का लाभ उन्हें अवश्य मिलना चाहिए। प्रेम विवाह में भी उपरोक्त मर्यादा का निर्वाह समस्याओं को अवश्य कम कर सकेंगा । पर आज ये पुरानी बातें है। किन्तु आज हम इतना कहने का साहस अवश्य रखते हैं किभारतीय संस्कृति अपनी स्थायी विशेषताओं के कारण एक वैश्विक संस्कृति बनने की पूर्ण योग्यता रखती है।
अतीत में लौटने की कामना हम अक्सर किया करते हैं।क्या हम पुनः अपनी भारतीय संस्कृति की ओर लौट सकेंगे?हमें ऐसी आशा अवश्य करनी चाहिए।। आशा सहाय