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तलाक है या है ये बिदाई

हरफ – हरफ हिसाब लगाकर सब ले गई थी तुम अपना|

ये मेरा हुआ, ये तुम्हारा बनता है इतना।

फिर भी छोड़ गई देखो सामान कितना|

इतना कि हर पल, हर कदम अपने ही घर में ठोकर खाकर गिरता हूँ में|

यूंकि तुम याद न आओ इसलिए आँखें मूँदें फिरता हूँ मैं।

सिंगार के निशां है यहाँ |

कुछ बिंदियाँ शीशे से लगी देखती हैं एकटक मुझे|

लुढ़की पड़ी है लिपस्टिक सिंगारदां के आगे|

अनमने से दो बुन्दे सोने – सोने को हैं|

उस दिन मारे डर के उंगलियों को बांधे रखा था।

फंस न जाएं उस बड़ी चूड़ी सी बाली में

जो कान में पहन कर आई थी तुम |

लम्बा एक बाल पड़ा है तकिए पर, अटका रह गया है ।

कमरों में अपनी गंध भूल गई हो, लापरवाह, भुलक्कड़ लड़की|

मन्दिर में रखे उस अन्धेरे कलश का पानी अभी भी गीला है|

उचक कर माचिस से तीली मुझे घूर रही है,

तुमने धूप-बत्ती की थी यहाँ |

यहाँ देखो चप्पले हैं, जो तुमने पहनी थी|

मेरी थी,पर अब मेरी रही नहीं, छोटी हो गई हैं|

जब से ठुनक कर तुमने उनके बड़े होने की शिकायत की थी|

और उधर बो बेपरवाह सी चुन्नी तुम्हारी अंगड़ाई सी, इतराई सी|

बलखाए साँप सी डसती है मुझे,

वहाँ बिस्तर पर ढेर सी हँसी बिखरी पड़ी हैं|

सिमट कर चादरों में सिर पटक रही है|

शायद चेहरा तलाश रही है तुम्हारा।

अल्मारी के हैंगरों में टंगी बची-खुची तुम्हारी साड़ियाँ

जिनमें सर गड़ा कर आज भी तुम्हारे वक्ष की खुशबू ले लेता हूँ।

पर मुझे सिर्फ हँसी नहीं चाहिए|

तुम्हारा ये सब सामान भी नहीं|

मुझे चेहरा, शरीर, तपन सब कुछ चाहिए|

कतरों सी यादों से झोली नहीं भरती मेरी,

कंजूस लड़की|

जिन्दगी से लम्हों के स्लाइस काट कर कब तक देती रहोगी मुझे|

तुम या तो आ जाओ, या समेट ले जाओ सामान अपना |

जब तुम इन सबकी गठरी बाँधकर अपने साथ ले जाओ|

तो ख्याल रखना|

पीछे कुछ छोड़ना नहीं|

जो फ़ांस सा जिगर में अटका रहे, हिलता रहे|

दर्द मत देना मुझे,

यूँ कि हर कमरे में खनकती अपनी हँसी को,

बेसहारा मत छोड़ जाना|

क्योंकि एकदम भुलक्कड़ हो तुम, बेरहम लड़की|

–दिनेश कपूर

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