सुख-दुःख का संबंध मन और शरीर से होता है, जबकि आनंद का संबंध अंतरात्मा से होता है। आनंद अगर मिल जाए तो व्यक्ति उसे छोड़ना नहीं चाहेगा। प्रश्न यह है कि आनंद की प्राप्ति कैसे हो? इसके लिए हमें स्वयं से प्रेम करना और दूसरों में प्रेम बांटना होगा। ईश्वर द्वारा निर्मित जीवों के प्रति प्रेम करके हम आनंद प्राप्ति के पथ पर अग्रसर हो सकते है। यदि हम कभी एकांत में शांतचित बैठकर चिंतन-मनन और आत्म-निरीक्षण करें तो आनंद की अनुभूति को प्राप्त कर सकते हैं। यही समर्थता चतेन्या की अंतिम अवस्था है। सुख तो हमारे पास है बाहर से कुछ नहीं मिलता। हम तो अपने अज्ञान के कारण यह बोलते हैं कि, अमुक वस्तु में सुख है जबकि वास्तविकता यह है, कि हम उस वस्तु को निमित्त बनाकर अपने ही अंदर के महासागर के सुख का अनुभव करते हैं।
ख़ुशी क्या है और कैसे पाएँ
जो नि:संग और निर्लेय है, जिनके मन में आकांक्षा और उत्साह है तथा तो कर्म की सिद्धि-असिद्धि से एवं लाभ-हानि से विचलित नहीं होता वो ही वास्तव में असली ख़ुशी का हकदार होता है। ख़ुशी पाना हमारे सकारात्मक विचारों पर निर्भर करता है। हमें अपने दिमाग को नियंत्रित करना आना चाहिए जो मेडिटेशनऔर योग से संभव है। माँग, अपेक्षा और नाराज़गी के कारण हम खुद हैं जो हमारे दुखों का कारण बन जाते हैं। हम अगर स्वयं को दूसरों के तुलना और अपेक्षाओं से दूर रखें तो ख़ुशी पाना हमारे अपने हाथ की बात हो जाती है। गीता में भी तीन योगो का जिक्र है….कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग। तीनों योगों को अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से उतार आप जीवन के आनंद और ख़ुशी को पा सकेंगे। योगों को समझने के लिए पहले मानसिक शक्ति का पूर्ण रूप से विकास करना होगा। मानसिक शक्ति का विकास चित की समुचित एकाग्रता पर निर्भर है।
ख़ुशी के लिए आत्म-साक्षात्कार
आनंद और खुशी पाने के लिए आज संसार भर में योग मेडीटेशन द्वारा एक आध्यात्मक आंदोलन की शुरुवात हो चुकी है। आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में कैसे अमेरिका समेत अन्य पाश्चात्य देशोंनेकिसी पद की ज़िम्मेदारी या उसके पॉवर को बोझ न समझ अपितु उसमें ख़ुशी कीतलाश करने के लिए, यानी दुनिया में रहते हुए भी दुनिया भर का बोझ सिर पर न उठाए रखें औरज़िम्मेदारी तथा दुनियादारी निभाते हुए भी सहजबने रहने की कला एक गुण के रूप में अपनाया है वो एक मिसाल है। इस कला कास्रोत हमारी आत्मा से है। उसी स्रोत को तलाशने के लिए एक निश्चित वक्त के लिए एकांतवासी हो जाते हैं। साधक गुरु आश्रम में जाकर मन को आत्मा में लगाए रखने की साधना को सीखकर आत्मिक ख़ुशी के लिए अंत:करण में आत्मा के दर्शन कर फिर से स्वयं को संयम युक्त जीवन जीने की कला सीखता है। आत्म-साक्षात्कार करने के लिए तीसरे नेत्र और कुंडलिनी जाग्रत का भी आश्रय लिया जाता है।
मन का सामर्थ्य
जबसे योग को संयुक्त राष्ट्र ने योग-दिवस के रूप में मान्यता दी है, उसके बाद तो भारत की इस प्राचीनतमविद्या को पूरे विश्व ने और भी खुले मन सेअपनाया है। इस मार्ग से जैसे तन और मन की शक्ति और सामर्थ्य को विकसित कर आनंद पाने का सरल उपाय उन्हे मिल गया हो। मनुष्य कुछ सामर्थ्यों और शक्तियों को साथ लेकर जन्म लेता है।इस अभ्यास के शस्त्र को राजयोग कहते हैं। मन विश्वव्यापी है। मन अखंड है और इसी अखंडता के कारण ही हम अपने विचारों को एकदम सीधे ही आपस में संक्रमित कर सुख की चरम सीमा को पाते हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने अमेरिका के लास-एंजलस कैलिफोर्निया, मे अपने दिये भाषण में इसका जिक्र किया था। इस योग के द्वारा मन के सामर्थ्य को विकसित कर दूसरे मनुष्य के विचार संदेश को ग्रहण कर अपने व्यवहार द्वारा आनंद और ख़ुशी का आदान प्रदान किया जाता है।
आनंद के मार्ग
ख़ुशी, आनंद और जीवन के चरम सुख को पा लेने के लिए योग्य गुरु मार्ग तो दिखा सकता है किन्तु चलना तो स्वयं को पड़ेगा। सुविधा शरीर को होगी सुख मन को मिलेगा किन्तु आनंद आत्मा का होगा। चूंकि हम सब सांसरिक लोग है और इस संसार में रहने के लिए धन की भी जरूरत होती है। धन से शरीर को सुख मिलता है, तृप्ति मन को होती है, आत्मा में दोनों की उपेक्षा होती है। उपेक्षा आनंद के द्वार तक ले जाती है। आनंद के लिए जीना जरूरी है। जीने के लिए हँसना। गांधी जी के चेहरे पर सदैव मुस्कुराहट रहती थी और वे जल्दी-जलती हँसते रहते थे। वे मज़ाक भी करते रहते थे। गांधी जी से एक बार किसी ने पूछा की आप तो बार बार हँसते हैं, तो उन्होने कहा- हँसेंगे नहीं तो जियेंगे कैसे? हंसने के ऊपर ही हमारी जिंदगी कायम है। कदाचित हंसी के इस आध्यातम से चेहरे पर मिठास और ख़ुशी बरसेगी, वाणी और व्यवहार में रस। यही रस और मिठास भीतरी संतोष बाहर लाकर आनंद के मार्ग का द्वार खोले देगा। हंसी के इसी अध्यातम को आत्मा का विज्ञान “साइन्स ऑफ सोल” कहते हैं। जो एक नकद धर्म बन जाता है जहां उधर का कोई काम नहीं। अध्यातम एक चुंबक का काम भी करता है जो सामने वाली के भीतर में छुपी ख़ुशी, आनंद को अनायास ही खींच कर समानधर्मी बनाता है। और जीवन को कम्प्युटर की तरह ही री-प्रोग्राम कर देता है।
मेरा जीवन, मेरी सच्चाई
सब कुछ परिवर्तन शील है। अपने अंतस में मौजूद प्रतिकूलताओं को विभिन्न परतों से गुजरते हुए अनुकूल बनाना ही जीवन की सच्चाई है। हम पहले से ज्यादा खुश और संतुष्ट रहने के लिए चीज़ों को जल्दी-जल्दी बदलना चाहते हैं लेकिन अपने तौर तरीकों से हमेशा चिपके रहते हैं और फिर भी बदलाव की उम्मीद करते हैं। लेखक आइन्स्टाइन ने इस तरह से जीवन जीने को मूर्खतापूर्ण कहा है। बुद्ध कहते हैं की कुछ मत करो सिर्फ अपने वर्तमान को विवेकपूर्ण ढंग से जियो….खुशियाँ और आनंद स्वत ही आएंगे। यही जीवन का सार है अपने मित्र खुद बनें। स्वार्थ से दूर रह कर्मयोगी बनें। अपेक्षाएँ कम कर देने का ज्यादा सोचें। मनन के लिए एकांतवास भी कभी जरूरी है। यह सत्य है कि वही वापस मिलता है जो आप देते हैं। स्वयं के प्रति जागरूकता के निर्माण में समय व्यतीत न करें जीवन की प्रचुरता को महसूस करें। आंतरिक स्वतन्त्रता के लिए की जाने वाली वास्तविक यात्रा तब शुरू होती है जब आप अपने आपको अपने भीतर देखने के लिए तैयार कर लेते हैं।
इस यात्रा में एक अंतर्दृष्टि मिलती है कि मैंने कुछ नही खोया मेरा मूल सत्त्व कह रहा है मेरा दिल इतना साकारत्मक और उदार हो गया है, जिसके चलते मुझे आनंद और ख़ुशी के लिए कोई नकारात्मक चीजें अब आकर्षित नहीं करती। यदि हम स्वयं के विभीन्न हिस्सों से एक साथ काम करवा पाएँ तो आत्मिक आनंद और ख़ुशी के मार्ग पर चल कर कई नई ऊंचाइयों को छू सकेंगे। यहाँ यह जरूरी है की इस यात्रा को आप हमेशा प्रारम्भिक अवस्था में ही देखें।
अनिता कपूर (क्यालिफोर्निया, अमेरिका)