सब देखता नित ही यहाँ कब बोलता बस रो रहा।
अब रोज ही यह हो रहा मुख ढाँप मानव सो रहा।।
जग ही दिखे सब ये सखी अब खो रही निज है दया।
अति हो रही हर क्षेत्र में यह बीज है नव बो रहा।।
रचना रची भगवान ने उसने दिया यह रूप है।
सबको पड़ी अपनी यहाँ बस देख है जग ढो रहा।।
मन में रहे यह भावना सबके लिए यह कामना।
सबको मिले खुशियाँ सभी यह भाव ही वह सो रहा।।
करना सभी जग का भला मनमें करो यह साधना।
इसकी कमी अब हो नहीं जग है यही सब खो रहा।।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली