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अक्षय तृतीया (आखा तीज)

 मंजुलता

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ‘अक्षय तृतीया’ या ‘आखातीज’ कहते हैं। ‘अक्षय’ का शाब्दिक अर्थ है- जिसका कभी नाश (क्षय) न हो अथवा जो स्थायी रहे। अक्षय तृतीया तिथि ईश्वर की तिथि है। इसी दिन नर-नारायण, परशुराम और हयग्रीव का अवतार हुआ था इसलिए इनकी जयंतियां भी अक्षय तृतीया को मनाई जाती है। परशुरामजी की गिनती 7 चिंरजीवी विभूतियों में की जाती है। इसी वजह से यह तिथि ‘चिरंजीवी तिथि’ भी कहलाती है। चार युग- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग में से त्रेतायुग का आरंभ इसी अक्षय तृतीया से हुआ है। 
  वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को समस्त तिथियों से सबसे विशेष स्थान प्राप्त है।‘अक्षय तृतीया’ के रूप में प्रख्यात वैशाख शुक्ल तीज को स्वयं सिद्ध मुहुर्तों में माना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि इस तिथि में आरंभ किए गए कार्यों को कम से कम प्रयास में ज्यादा से ज्यादा सफलता मिलती है। अक्षय तृतीया के दिन मांगलिक कार्य जैसे-विवाह, गृहप्रवेश, व्यापार अथवा उद्योग का आरंभ करना अति शुभ फलदायक होता है। इस तिथि का उन लोगों के लिए विशेष महत्व होता है, जिनके विवाह के लिए गृह-नक्षत्र मेल नहीं खाते। इस शुभ तिथि पर सबसे ज्यादा विवाह संपन्न होते हैं। अक्षय तृतीया शब्द में तृतीया का संबंध शिवप्रिया माता पार्वती से है। ज्योतिषियों के मत से तृतीया तिथि की स्वामिनी माता गौरी है। वे स्वयं तो नित्य सौभाग्यवती हैं ही, अपनी भक्त-नारियों को भी अमर सौभाग्य का दुर्लभ वर देती हैं।  इस दिन कोई भी शुभ कार्य की शुरूआत करने के लिए न किसी ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता और न ही कोई दिन-शकुन विचार करने की जरूरत। परंपरा में यह तिथि ‘अबूझ’ है। इतनी अबूझ कि सारे मांगलिक कार्यो के लिए यह वर्ष भर के सबसे शुभ दिन के रूप में स्वीकृत है। इस नाते अक्षय तृतीया स्वर्ण और रजत खरीदने के दिनों में शामिल हो गया। नया कुछ भी खरीदना हो तो लोग अक्षय तृतीया की प्रतीक्षा करते हैं।राजस्थान में आखातीज पर ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में चोरी छिपे बाल विवाह होते हैं। प्रशासन ने बहुत बार ऐसे विवाहों को रुकवाया भी है. तमाम प्रचार प्रसार और कानूनी प्रावधानों के बावजूद लोग बाल विवाह कराने से चूकते नहीं हैं। ऐसे में प्रतिवर्ष राज्य सरकार इनकी रोकथाम के लिये अलग से प्रयास करती है। अक्षय तृतीया पर्व एक तरह से खेती का पूरा प्रशिक्षण है।  हाळी अमावस्या को पहले ही दिन सुबह खेतों में जल्दी पहुंचकर बच्चों को खेत में क्यारी बनाना, बुवाई करना, हल चलाना, बीजों का ज्ञान दिया जाता है। हल चलाने से लेकर बीज डालने का यह प्रशिक्षण देने के बाद साफा पहनकर बच्चे जब गांव में आते है तो उत्साह के साथ पहुंचते है। यही एक अवसर होता है जब बच्चों को गांव की रियाण( मुख्य सभा ) में ससम्मान बुलाया जाता है। साथ ही उनसे जाना जाता है कि किस तरह हल चलाया और कैसा लगा।

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