ज़िन्दगी के दामन में फूल ही फूल नहीं हैं, कांटे भी हैं। यह मालूम तो था लेकिन जाना आज ही है। ख़्वाब देखना आसान है। किन्तु उस ख़्वाब को हकीकत बनाकर ज़मीन पर उतरना मुश्किल है। मैंने हिम्मत करके यह काम अपने हाथों में ले लिया। हर कीमत पर उसे पूरा करने की चेष्टा मेरे मन में उठी। चेष्टा उठी तो मैंने हाथ पांव खोले। थोड़ा बहुत काम किया। मेरा मन प्रसन्न था। परन्तु जितना काम हुआ था वह तो वास्तव काम का एक अंश मात्र था। मैं उसी के पूरा होने पर खुश हो गई थी। उसी को अपनी सफलता मान बैठी थी। मुझे लगा था मैंने अपना लक्ष्य पा लिया है। मैं सर्वश्रेष्ठ हूं। मेरे भीतर असीम इच्छाशक्ति है। परन्तु यह मेरी भूल थी। जिसके कारण मैं अपनी पूर्व स्थिति से भी एक कदम पीछे हट गई थी। एक तूफान सा आया। मुझे पूरी तरह झंझोड गया। आंखें खुली तो मैंने स्वयं को जमीन पर पाया और अपने चारों ओर बिखरे देखे मिट्टी के ढेले। आसमान कहां गया ? सितारे कहां गायब हो गए ? सब मुझे अकेला छोड़कर कहां गए ? मैं अकेली रह गई थी। आखिर तो एक इंसान हूं। अपने अकेलेपन से घबराकर रोना प्रारम्भ कर दिया।
रोते रोते एक हाथ अपने सिर पर महसूस हुआ। उस समय हवा चल रही थी लेकिन एक आवाज़ मुझे सुनाई दे रही थी,” बस इतनी सी ही दृढ़ता है तुम्हारे भीतर ? इतनी जल्दी हार मान ली ?” मैं चुप थी लेकिन सही में मैंने हार मान ली थी। मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह आवाज़ फिर वातावरण में गूंजी।,” उठो। फिर से चलना प्रारम्भ करो। लेकिन संभलकर। गिरना तुम्हारी हार नहीं है। बार बार गिरकर संभल जाने वाला अधिक महान होता है।
सभी बातें मैंने ध्यान से सुन ली। परन्तु मन में एक प्रश्न था। जाने कैसे उस आवाज़ ने मेरा प्रश्न जान लिया ? फिर वही आवाज़ गूंजी,”जो चीजें तुम्हे अकारण दुखी करती हैं, उन्हें भूल जाओ। नजरअंदाज कर दो। केवल लक्ष्य को याद रखो। उसी पर नज़र रखो। फिर तुम्हे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता है।” मुझे अब सब समझ आ गया था। मैंने आंसुं पोंछ डाले। आगे बढ़ने के लिए कदम बढ़ाए। एक बार फिर वही आवाज़ सुनाई दी,” कदम रखो, लेकिन संभलकर।” मैं सचेत हो गई। फिर से चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
अर्चना त्यागी जोधपुर राजस्थान