एफ.आर.आई
पुण्य धरा सी
कर्मस्थली
मेरे पिता की
साध थी बहुत दिनों की
देखने की
उसे पास से अनुभव
करने की
उस जमीन के स्पर्श की
जिस पर वर्षों
मेरे पिता आते-जाते रहे
अपने सरकारी सेवाकाल में
आज जब
अचानक आया मन में
वहाँ जाऊँ तो
बेटी के साथ
कदम चल पड़े
ट्रेवर रोड की ओर
तब सामने थी एफ.आर.आई
ज्यों प्यासे को
मिले पानी
कुछ ऐसी थी मनःस्थिति
क्या देखूँ क्या न देखूँ
वो सीढियाँ
जिन पर चढ़ कर
जाते थे पिता
अपने हिंदी विभाग में
वहाँ बैठ कर
उनके कदमों के स्पर्श को
जिया मैंने
दीवारों को छू कर लगा
मानो छुआ हो
अपने पिता को
एक चित्र आता रहा
आँखों के सम्मुख
जिसमें दिखते रहे पिता
वहाँ चलते-घूमते
वो कैंटीन
जहाँ से लौटने पर लाते थे
ब्रेड और लेमनचूस की गोलियाँ
वहाँ बन गया होस्टल
बदल गया बहुत कुछ
पर अब भी
बाकी है, जो नहीं बदला
लोगों का इसके प्रति आकर्षण
तीर्थ बहुत हैं
जहाँ जाते सब
दर्शन को, पूजा को
पर मेरे लिए
ये एफ.आर.आई
सबसे बड़ा तीर्थ
जहाँ आकर
इसके बारे में सोच कर
पवित्र हो उठती हूँ मैं
अपने पिता की
कर्मस्थली में आकर
असंख्य पुण्यों का सुफल
पा लेती हूँ मैं
नमन कर यहाँ
पुनः आने का वादा कर
पिता से मिल कर
घर लौटती हूँ मैं
जो हासिल हुआ आज
वह जीवन में
किसी तीर्थ के
पुण्य के,सुफल से
कम नहीं मेरे लिए।
————————– डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई।