कविता मल्होत्रा (संरक्षक एवं स्तंभकार – उत्कर्ष मेल)
उधार की मिली सब साँसें,हर धड़कन मुक्ति की अभिलाषी है
अपनी संवेदनाओं को साग़र कर दें, हर रूह प्रेम की प्यासी है
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अति हर चीज़ की बुरी होती है, बचपन से सुनते आए हैं।मानव जाति से किस तरह के गुनाहों की अति हुई है जिनके परिणाम स्वरूप आज हर तरफ़ अफ़रातफ़री का माहौल है और मृत्यु का ताँडव अनेक परिवारों पर कहर बरसा रहा है।
कहीं बुजुर्गों के बुढ़ापे की लाठियाँ टूट रहीं हैं, कहीं मासूमों के सर से अभिभावकों की छाया छूट रही है तो कहीं असमय जीवन साथी जुदा हो रहे हैं।न जाने मानव जाति को किस श्राप का भुगतान करना पड़ रहा है।
बचपन में पढ़ा कबीरदास जी का दोहा आज की स्थिति पर सटीक प्रहार करता है। जिन्होंने बचपन में ध्यान नहीं दिया वो अब दे सकते हैं –
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काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब
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वैसे तो ये पंक्तियाँ आलस्य के निवारण हेतु बहुत ही उम्दा संदेश देती हैं, लेकिन आज के वक्त की भी यही माँग है कि मानव जाति अपने अँदर पल रही स्वार्थ की प्रवृत्ति को जितना जल्दी हो सके त्याग दे, और समूची मानवता के उत्थान की दिशा में कदम उठाए ताकि मानवता को शर्मसार होने से बचाया जा सके।
ये ज़रूरी नहीं है कि किसी की मदद के लिए धन होने पर ही सेवार्थ कदम बढ़ाए जा सकते हैं।यदि मन में सेवा भाव हो तो तन और मन की सेवा ही पर्याप्त है।किसी ज़रूरतमंद के दिल की बात सुनकर भी अपनी संवेदनाएँ प्रकट की जा सकती हैं, किसी को उसकी ज़रूरत के समय उसके साथ खड़े होने का आश्वासन दिया जा सकता है।प्यार के दो बोल किसी बुझते हुए चिराग़ को हवा देकर जीवनदान देने के लिए काफ़ी हैं।
जिस तरह परिवार में कमाने वाला भले एक हो लेकिन बाक़ी के सदस्य उस एक के भरोसे जीवन जी जाते हैं, ठीक उसी तरह आज की मौजूदा परिस्थितियों की ये माँग है कि महामारी से बचे हुए तमाम परिवारजनों को अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग दिया जाए।
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ये तो सच है कि प्रेम का कोई विकल्प नहीं होता मगर ये भी सच है कि मानवता की सेवा से बड़ा कोई संकल्प नहीं होता।
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आज अस्पताल मरीज़ों से भरे पड़े हैं।किसी के पास इलाज के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ही नहीं है। ऐसे समय में जब बीमार को अस्पताल में दाखिल करवाने से पहले मोटी रक़म की माँग की जाती है तो ऐसा लगता है कि बीमारी से अधिक मौतें तो संवेदनहीन समाज के कारण हो रही हैं।
क्या सब लोग अपने-अपने स्तर पर व्यक्तिगत मदद का संकल्प नहीं ले सकते? अगर इस समय पर फ़िज़ूलखर्ची को रोक कर हर कोई ज़रूरत मंद परिवारों का सहयोगी बन जाए तो समूची मानव जाति आज प्रकृति के प्रकोप से बच सकती है।एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ को त्याग कर एक दूसरे को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति ही आज की मौजूदा स्थिति का समाधान हो सकती है।
प्रकृति ने सूरज चाँद और पाँच तत्वों के माध्यम से अनुशासित
निःस्वार्थ सेवा का संदेश सभी को दिया है, इसलिए समूची मानव जाति का ये परम कर्तव्य है कि वो मानव जीवन के परम उद्देश्य को समझते हुए अपना दायित्व निभाए और मानवतावादी सोच का प्रसार करे ताकि आने वाली पीढ़ियाँ गर्व के साथ कह सकें कि –
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“आई थी काली रात जो रूह की हिदायत से बीत गई
पथभ्रमित मानव सुबोधित हुआ और मानवता जीत गई”