मुंबई में शूटआउट शब्द बड़ा प्रसिद्ध है । ये शूटआउट शब्द निश्चित रूप से आपने बॉलीवुड फिल्मों में सुना होगा किन्तु जब बाला साहब ठाकरे नाम का दिग्गज मुंबई में राज करता था तब हिंदुत्व का ध्वज महाराष्ट्र के आसमान पर सबसे ऊंचाई पर लहराता था और शूटआउट शब्द केवल माहौल बिगाड़ने वाले के लिए होता था । समय बदला ,सत्ता के लालच में बाला साहेब ठाकरे का नाम डुबाने वाले मुंबई के राजनीतिक अखाड़े में क्या उतरे ,ठाकरे शब्द सहित हिंदुत्व का पताका भी जमींदोज हो गया । कुर्सी के लिए अपना जमीर बेच चुकी ऊधव ठाकरे की सरकार ने भारत में क़ानून व्यवस्था में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। केंद्रीय मंत्री नारायण राणे द्वारा उन्हें थप्पड़ मारने के बयान देने के अपराध में बहुचर्चित महाराष्ट्र पुलिस ने राणे को गिरफ़्तार कर लिया। नारायण राणे ने जो कहा था वह शालीनता का खुला उल्लंघन है इसका तो मै भी विरोध करता हूं लेकिन जिस देश में असली थप्पड़ मारने पर भी पुलिस कार्रवाई नहीं करती है (धारा 323 आई पी सी अहस्तक्षेप योग्य अपराध है) वहाँ पर थप्पड़ मारने की बात करने पर केंद्रीय मंत्री को (अनेक अन्य धाराएँ जोड़कर) गिरफ़्तार किया जाना आश्चर्यजनक है। वैसे नारायण राणे शिवसेना की संस्कृति में ही परिमार्जित हुए हैं जो सड़क के हिंसा के गर्भ से उत्पन्न हुई है। यही शिवसेना जिसके मनमानी से राज ठाकरे नामक एक चंगु भी पैदा हुआ और आए दिन उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट करके सत्ता में धाक जमाना चाहता था उसे शिवसेना के ही संजय राउत ने राजनीति में कचरे के डिब्बे में बंद कर दिया । याद करें कि शिवसेना के इसी संजय राउत ने अभिनेत्री कंगना राणावत पर कितना जुल्म किया । हिंदूवादी महिला और बहादुर कंगना ने राउत को ना सिर्फ पानी पानी किया बल्कि उधव ठाकरे को ये बता दिया कि वो बाला साहेब ठाकरे कभी नहीं बन सकता ।
एक बार एक सांसद ने हवाई जहाज़ में एयर इंडिया के एक कर्मचारी की चप्पल से पिटाई कर दी थी।राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति पर की गई कार्रवाई पर प्रतिक्रिया भी राजनीतिक आधार पर ही आती है। राजनीति के बँटवारे के आधार पर हर घटना के समर्थक और विरोधी मिल जाते हैं। इस महाराष्ट्र पुलिस की गिरफ़्तारी की कार्रवाई के समर्थक भी बुद्धिजीवियों में मिल जाएंगे। राज्यों द्वारा अपनी पुलिस और केंद्र द्वारा अपनी पुलिस , इनकम टैक्स और नार्कोटिक्स से विरोधियों पर कार्रवाई किए जाने का एक लंबा इतिहास है।अभी तक अधिकांश राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के नाम पर कार्रवाई होती रही है। स्वतंत्रता के बाद शनैः शनैः लगभग समस्त राजनीतिक पदाधिकारी, कुछ अपवादों को छोड़कर, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रष्ट हो गये। इसलिए किसी के भी विरुद्ध आसानी से कार्रवाई की जा सकती है। ये कार्रवाई सज़ा दिलाने से ज़्यादा एक लगाम की तरह प्रयोग की जाती है जिससे राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। लालू यादव, ओम प्रकाश चौटाला और मृत्यु पूर्व जयललिता जैसे अपवादों को छोड़कर लगभग सभी प्रकरण समाप्त हो जाते हैं जैसे मुलायम सिंह और मायावती के विरुद्ध प्रकरण।अब बयानों पर भी गंभीर कार्रवाई होने लगी है। दुर्भाग्यवश प्रवर्तन एजेंसियों को कोई ऐसी स्वायत्तता नहीं मिली है जिसमें वे अपने विवेक से कार्रवाई कर सकें। सभी महत्वपूर्ण कार्रवाइयों में ये एजेंसिया अपने राजनैतिक शासकों द्वारा नियंत्रित होती है।उनके एक इशारे पर वे वैधानिक और अवैधानिक कार्रवाई करने के लिए तैयार रहते हैं। पिछले वर्ष मुम्बई के अपने सांस्कृतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए केंद्र सरकार ने अपनी एजेंसियों का खुलकर दुरुपयोग किया था। गाँजे की पुड़िया पकड़ने के नाम पर अनेक लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया। इसके जवाब में महाराष्ट्र पुलिस ने कंगना रानौत और अर्नब गोस्वामी आदि के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।तत्कालीन मुंबई के पुलिस कमिश्नर राज्य सरकार की आँखों के तारे बन गए, लेकिन उनके द्वारा गृह मंत्री पर उंगली उठाते ही उनके विरुद्ध चार मुक़दमे क़ायम कर दिए गए।राजनीतिक लोगों के अतिरिक्त पत्रकारों और समाज के अन्य प्रभावशाली लोगों के विरुद्ध भी सभी राजनीतिक दलों की सरकारें दमनकारी कार्रवाई करती है।हमारे काम के बोझ से थके हुए न्यायालय सरकार की अधिनायकवादी कार्रवाइयों पर झाड़ू चलाते रहते हैं जिनसे कार्यपालिका को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अभी चंद दिनों पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनेक अपराधिक प्रकरणों में गिरफ़्तारी की कोई आवश्यकता ही नहीं है, और वहीं नारायण राणे की घटना में रिपोर्ट दर्ज होते ही गिरफ़्तारी हो गई। एन एस ए और यू पी ए ए जैसे प्रतिबंधात्मक निरोध में लेने वाले कानूनों का भी दुखद उपयोग हो रहा है और पीड़ित व्यक्ति तब तक जेल से नहीं छूटता जब तक न्यायालय अपना निर्णय नहीं दे देते हैं। पुलिस के इस दुरुपयोग से एक विचित्र प्रजातांत्रिक व्यवस्था भारत में स्थापित हो गई है।इस व्यवस्था से प्रताड़ित होने वाले राजनीतिक व्यक्ति व्यवस्था के सुधार के बारे में नहीं सोचते हैं और वे उचित अवसर आने पर अपना प्रतिशोध लेने की योजना बनाते रहते है।
— पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर।