कविता मल्होत्रा (संरक्षक, स्तंभकार)
“माता-पिता केवल शब्द नहीं ये जीवन का हैं सार
ईश्वरीय श्रवण कुमार वही जो सृष्टि का सेवादार”
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक प्रकार की संभावनाएँ होती हैं जो किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व को तराश कर एक सुघड़ आकार देतीं हैं।हर व्यक्ति की पसंद अलग होती है।अपनी पसंद के अनुसार हर कोई अपना मनपसंद विषय चुन कर उस विषय का अध्ययन करता है और शिक्षाविद कहलाता है।अपना जीवन तराशने के बाद दूसरों का जीवन तराशने का दायित्व उठाना ही तो हर व्यक्ति को अभिभावकों की श्रेणी में लाने का आधार बनता है।बच्चे तो जानवर भी पैदा कर लेते हैं लेकिन बचपन को सही दिशा दिखा कर मार्गदर्शन करने के लिए स्व बोध का होना ज़रूरी है।किसी भी व्यक्ति को जीवन का सार किसी भी स्कूल के सिलेबस में नहीं पढ़ाया जाता।देश-विदेश से तो केवल उच्च शिक्षा की उपाधियाँ ही हासिल की जा सकतीं हैं, लेकिन अपने राष्ट्र का गौरव बनने की प्रक्रिया तो हर व्यक्ति का अपना चिंतन होता है।कोई सफलता के मायने केवल बैंक बैलेंस को देता है तो कोई उच्च स्तरीय नौकरी को।लेकिन स्वाध्याय की नियमितता ही मानव जीवन में अनुशासन और परम सत्य की बुनियाद रखती है।हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है।इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल अपने जीवन को सार्थकता देने के लिए किया जाए या दूसरों के जीवन की सफलताओं से ईर्ष्या रख कर केवल दिशाहीन सफ़रनामा गढ़ा जाए, ये हर व्यक्ति का अपना चुनाव होता है।लेकिन अपनी गल्तियों का दोष दूसरों के सर पर डालकर अपनी असफलताओं का रोना रोते रहना, किसी को सहानुभूति तो दिला सकता है लेकिन सफलता के शिखर पर नहीं पहुँचा सकता।सांसारिक जीवन
के अधिकार तो हर किसी को मिलते हैं लेकिन इन अधिकारों का पाने का अधिकारी कोई विरला ही बन पाता है।हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं इसलिए हमें उस रब को रिझाने के लिए आजीवन अध्ययनरत रहना चाहिए ताकि हम उसकी रज़ा में रहकर उसकी रहमत पाने के अधिकारी हो सकें।जीवन के हर पड़ाव से हर व्यक्ति को कुछ अधिकार और कुछ दायित्व एक साथ मिलते हैं।व्यक्ति अधिकारों पर तो स्वामित्व बनाए रखना चाहता है लेकिन दायित्व नजरअँदाज़ करके तीर्थ यात्राओं को ही ईश-स्तुति का पर्याय मान लेता है।ऋतु परिवर्तन के साथ तालमेल बैठा कर हम गर्म और सर्द मौसम के अनुसार कपड़े तो पहन लेते हैं लेकिन मौसमी परिवर्तन के अनुसार अपने अधिकारों के स्वामित्व और अपने दायित्वों के निर्वहन का समीकरण कुशलता पूर्वक हल नहीं कर पाते।क्यूँकि हम सब बच्चों की श्रेणी से माता-पिता की श्रेणी में तो आ जाते हैं लेकिन मातृत्व और पितृकल्प के दायित्वों का पालन करने में सक्षम नहीं हो पाते, और अपनी असफलताओं का दोष एक-दूसरे पर मढ़ कर अपनी-अपनी कम्फ़र्ट ज़ोन में रहने की स्वतंत्रता के लिए अपनों के ही विरुद्ध एक अघोषित युद्ध छेड़ बैठते हैं।अपनी कर्मभूमि को रणभूमि में परिवर्तित करके अपने स्वार्थों को सारथी बनाने वाले मानव दानव बन जाते हैं।जीवन की सार्थकता का अर्थ जानने की कोशिश करने वाले, मानव जीवन के उद्देश्यों का सार अपने माता-पिता की दी हुई शिक्षा की परिक्रमा करके ही पाने का प्रयास करते हैं।ये और बात है कि स्वार्थ परक अभिभावक स्वार्थ की ही फ़सल उगाते हैं और निःस्वार्थ जीवन जीने वाले अभिभावक निःस्वार्थता की नस्लें उगाने में अपना योगदान देते हैं।चयन सबका अपना है।
“अब के बरस निस्वार्थता की ही फसल उगाई जाए
जीव रब की नस्ल दर्शाए और रूह को बधाई जाए”