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दिल्ली की कीलों वाली सड़के

कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
फरवरी महिना तो प्यार बांटने का महिना होता है । लोग एक दूसरे को गुलाब का फूल देते हैं पर दिल्ली की सड़कों को कीलों से पाट दिया गया । किसान आन्दोलन का भया । सरकार ने भी और सारे देष की जनता ने भी किसानों के वे आन्दोलन देखे हैं जिसके होने मात्र की कल्पना से पसीना आ जाता है । इस बार किसानों का आन्दोलनपंजाब हरियाणा से शुरू हुआ । आन्दोलन कहीं से भी प्रारंभ हो उसकी मंजिल तो दिल्ली ही होती है तो दिल्ली वाले भयभीत हो गए जनता भी और सरकार भी । किसान आन्दोलन के भय से दिल्ली की सारी बार्डरें सील कर दी गई । किसान ट्रेक्टर पर निकले थे और ट्रेकटर को रोकना जरूरी था । किसान पैदल होता तो कहीं से भी घुस सकता है पर वह तो अपनी शान की सवारी ट्रेक्टर पर सवार होकर निकला, सैकड़ों ट्रेक्टर रवाना भी हो गए । इन ट्रेक्टरों को कैसे रोके तो पुलिस ने सड़कों पर कील बिछा दीख् बड़े-बड़े पत्थर भी रखवा दिए चट्टानों जैसे ताकि कोई निकल ही न पाए । फरवरी माह के जिस पखवाड़े में प्यार के फूल बरसना चाहिए उस पखवाड़े में कीलें लगा दी गई । सरकार की अपनी चिन्ता है, उसके अपने तरीके हैं । किसान जानता है कि वे निकलेगें तो रोके जायेगें ही । कुछ दिन पहले भी ऐसे ही रो दिए गए थे । पर उनको तो निकलना ही था, बगैर भयभीत हुए । किसान भयभीत नहीं है, सरकार भयभीत है । उसके किसानों का आन्दोलन देखा है, उसने दिल्ली की सड़कों पर घुसते किसानों के हुजूम को भी देखा है । सरकार तो बंद कमरों में बैठकर ेखती है पर पुलिस के जवान खुली सड़कों पर इनसे मुकाबला करते हैं । पुलिस के जिम्मे ही होती है जिम्मेदारी की किसान दिल्ली में न घुसें और घुस जाएं तो पुलस की ही उन्हें भगपा पड़ता है । कुछ सालों पूर्व हुए आन्दोलन की तस्वीर अभी धुंधली कहां हुई है । लाकिले से लेकर जंतर-मंतर तक किसानों के हुजूम को रोक नहीं पाई थी पुलिस । किसान तो कई महिने बैठे रहे थे दिल्ली की बार्डरों पर, वे आराम करते रहे और सरकार पसीना छोड़ती रही । तब बहुत सारे किसान संगठन एक ही बैनर के नीचे आन्दोलन कर रहे थे । इस बार ऐसा नहीं था । इस बार कुछ किसान संगठन आन्दोलन से दूर रहे । पर फिर भी किसान आन्दोलन की ताकत कम दिखाई नहिं दी और न ही सरकार का भय कम होता हुआ दिखा । सरकार सचेत हो गई, उसने अपने मंत्रियों को पंजाब भेज दिया ताकि वहीं बैठकर बातें हो जाऐं । कुछ तुम अपनी सुनाओं और कुछ हम अपनी सुनाऐं । सरकार के नुमांइेदे बैठे भी किसान नेताओं के साथ, कुछ समस्या का हल भी निकला पर कुछ समस्यायें उलझी ही रह गई । नुमाइंदों के वष में जितना था उतनी मांगे उन्होने मान ली पर जो बड़ी मांगें थी उनको मान लेने की घोषणा वे नहीं कर सकते थे तो नहीं की । किसान कुछ मांगों को मान लेने से संतुष्ट नहीं हुए । जो मांगे मानी गई वे उतनी महत्वपूर्ण थी भी नहीं जो महत्वपूर्ण थीं वे मानी नहीं गई तो किसानों ने अपना आन्दोलन खत्म नहीं किया । किसानों को चाहिए फसल की एमएसपी । यह मांग पिछले आन्दोलन में भी थी । किसानों के लिए अपनी उपज का न्यूनतम मूल्य आवष्यक है इसलिए यह मांग उनकी महत्वपूर्ण मांग है । सरकार अभी इसे मान नहीं पा रही है उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं । किसानों का आन्दोलन सामान्य आन्दोलन नहीं होता वे अपना बोरिया बिस्तरा और खाने का सामान साथ में लेकर निकलते हैं, यह सोचकर की जाने कितने दिनों तक सड़कों पर रात गुजारना पड़े । किसान इस देष की धुरी है । इस बात को सरकार भी जानती है तो आम व्यक्ति भी । वैसे सच यह भी है कि वर्तमान केन्द्र सरकार ने किसानों के लिए बहुत सारी बेहतर योजनाएं संचालित भी की हैं और किसान सम्मान निधि के माध्यम से उन्हें आर्थिक मदद भी दे रही है । पर किसान अभी संतुष्ट नहीं है, किसानों का संतुष्ट होनास आवष्यक है इसलिए ही तो उम्मीद की जा रही है कि सरकार किसानों की मांगों को मान ही लेगी । नीतिष सरकार का विष्वास मत प्राप्त करना भी ड्रामा जैसा रहा । वैसे तो नीतिष कुमार नौ बार नए मुख्यमंत्रि बनकर विष्वास मत हासिल कर चुके हैं पर किसी भी बार उन्हें कोई परेषानी का सामना नहीं करना पड़ा पर इस बार तो दो दिन पहले से ही नौटंकी चालू हो गई थी । विधायकों पर अविष्वास कर उन्हें एकजुट करने के बहाने से बंदी बनाना अब लोकतंत्र का नया खेल बन चुका है । पार्टी कोई स भी हो हर एक को अपने ही विधायकों पर भरोसा करने में कठिनाई होती है । क्या वास्तव में चुने हुए जनप्रतिनिधि इतने अविष्वसनीय हो चुके हैं कि उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता । वैसे भी विगत लगभग एक दषक से राजनीतिक मूल्यों में जो गिरावट आई उसे देखते हुए अविष्वास करना उचित भी लगता है । वे जीतते किसी चुनाव चिन्ह से हैं फिर किसी और चुनाव चिन्ह वाली पार्टी को अपना समर्थन दे देते हैं । बिहार में भी इसकी संभावानाएं तलाषी गई होगीं । लगभग हर एक राजनीतिक दल ने अपने विधायकों को छिपा कर रखा इसके बाद भी आरजेडी के तीन विधायकों ने पाला बदल लिया । एक समय तो ऐसा लग रहा था कि नीतिष कुमार की सरकार विष्वास मत हासिल ही नहीं कर पायेगी । पर उनके पास सत्ता थी, जिसके पास सत्ता होती है उसके पास सारे बल होते हैं । आरजेडी के जिन तीन विधायकों ने उनका समर्थन किया इसके पीछे भी सत्ता का बल माना जा रहा है । हर एक इंसान में कमजोरी होती है विधायकों में तो कुछ ज्यादा ही कमजोरियां होतीं हैं ये कमजोरियां अपनों से ही गद्दारी करने का मजबूर करती हैं और जिसको सत्ता चाहिए उसके लिए सरलता पैदा करती हैं । हमारे देष में तो यह अब बहुत हो भी रहा है और सभी समझ भी रहे हैं ‘‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’’ । वे इतने नोटिस थमा देते हैं कि जबाव देने वाला जबाव देते-देते थक जाता है फिर समर्पण कर देता है । नीतिष कमार की पार्टी के जिन तीन-चार विधायकों ने अपने विधायक होने का घमंड पाल लिया था उन्हें भी जब दण्डित होना पड़ा तो वे भी समर्पण की मुर्दा में आ गए । तो नीतिष कुमार ने तो बहुत आसानी से बहुमत हासिल कर लिया पर इसके लपेटे में जो आए हैं वे कई महिनों तक इसके रियेक्षन को झेलेगें । नीतिष कुमार चतुर खिलाड़ी बन चुके हें । भाजपा भी उन्हें पहले से अधिक जानने और समझने लगी है इसलिए सत्ता में साथ हासेने के बावजूद भी वे उस पर उतना भरोसा नहीं कर रहे हैं । वे तो इन परिस्थितयों का लाभ ले रहे हैं । एक समय था जब नीतिष कुमार के पास सबसे अधिक विधायक हुआ करते थे पर अब उनके पास विधायकों की संख्या कम हो गई है । भाजपा के विधायक ज्यादा हैं और तेजस्वी यादव की पार्टी के विधायक भी उनके विधायकों से अधिक हैं फिर भी भाजपा हो या आरजेडी उन्होने कम विधायक होने के बावजूद नीतिष कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाए रखा । इसे भी सोची समझी रणनीति से जोड़कर देखा जा सकता है । नीतिष कुंमार मुख्यमंत्री हैं तो जो कुछ बिहार में घट रहा है उसका दुष्प्रभाव नीतिष कुमार के खाते में ही जाएगा और बाकी दल केवल सत्ता सुख भोगेगें । नीतिष कंमार इतने भोल भी नहीं हें कि वे समझ नहीं रहे हों पर वे मजबूर हैं । नीतिष कुमार का प्रभाव कम होता जा रहा है । ऐसे में अगेल चुनाव में नीतिष कुमार की पार्टी और कम सीटों पर सिमट कर रह जायेगी ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही ह। अब इसका फायदा या तो आजेडी को मिलेगा या भाजपा को । वैसे वर्तमान हालात को देखते हुए इसका फायदा भाजपा ही लेने वाली है ऐसा समझा जा सकता है । भाजपा लोकसभा चुनाव में चार से से अधिक सीट लाने का दंभ भर रही है । अभी भले ही यह दंभ लग रहा हो पर सच्चाई तो यह ही है कि भाजपा इतनी सीटें लेकर आयेगी ही सीधे नहीं तो टेढ़े । प्रधान मंत्री मोदी जी ने लोकसभा में ऐसा बोला है तो इसके अपने मायने हैं और इस बात के सत्य होने के पूरे चांस भी हैं । वैसे भी सारे देया में इस समय मोदी जी की लहर ही चल रही है । राम मंदिर में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा को जिस तरह से प्रचारित किया गया उससे मोदी जी के पति आम लोगों का विष्वास और बढ़ा है । धर्मनिरपेक्ष लोकसभसा तक में दोनों सदनों को एक दिन के लिए केवल राम मंदिर पर चर्चा करने हेतु संयोजित किया गया इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है । भाजपा ने मंदिर निर्माण और प्राणप्रतिष्ठा की जो रणनीति बनाई थी उसमें वह सफल रही । लोकसभ चुनाव तक राममंदिर को विस्मृत नहीं होने दिया जायेगा । रही सही कसर कांग्रेस सहित अन्य विचप्खी दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने से भी पूरा हो जायेगी । जिम्मेदार प्रभावषाली बड़े नेताओं का अपनी ही पार्टी से विद्रोह करने का क्रम जारी है । वे अपनी पार्टी से विदोह करते ह।ैं और उनके पास दूसरी पार्टी में जाने का रास्ता खुल जाता है । फिहलहाल दूसरी पार्टी का मतलब भाजपा ही है । ऐसा वातावरण बन चुका है कि भाजपा ही सत्ता पर काबिज रहेगी तो जिसको भी सत्ता का स्वाद लेना है उसे भाजपा में ही आना होगा तो वे आ भी रहे हैं । भाजपा में प्रवेष लेने वालों की लाइन लगी है और भाजपा भी मुक्त हसत से सभी को अपनी पार्टी का दुपट्टा पहना रही है । आने वालों में सबसे अधिक कांग्रेसी नेता ही हैं । महाराष्ट्र के कांग्रेस के बड़े नेता अषोक चौव्हाण भी भाजपा में शामिल हो चकु हें । डूबती नौका में कोईनहं बैठना चाहता । कांग्रेस अभी बुरे दिनों से होकर गुजर रही है उसके जब अच्छे दिन आयेगें तो ये नेता फिर कांग्रेस में लौट आयेगें । बहरहाल अभी तो कांग्रेस में भगदड़ मची हुई है और ऐसा लगने लगा है कि आगामी कुछ दिनों में कांग्रेस नेताविहीन हो जायेगी । पर इसके बावजूद भी राहुल गांधी अपनी न्याय यात्रा में लगे हुए हैं । उनके चेहरे पर कोई षिकन नहीं है । बड़े नेता ऐसे ही होते हैं वे चिन्ता नहीं करते या चिन्तित होते भी हो तो दिखाते नहीं हैं । जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आयेगें नेताओं का पार्टी बदलने का क्रम और बढ़ता जायेगा ऐसा माना जा रहा है ।

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