मत बहाओ खून मनुता का, अये सभ्य मानवो!
रो- रोकर है पूछती तुमसे मनुजता आज है।
तुम थे बहुविकसित, बुद्धि – विवेकयुक्त भलेमानस
कहां पायी ऐसी पशुता, कैसा यह समाज है?
धांय-धांय, सांय-सांय करते गिर रहे बारूद- गोले
टूट- टूटकर के ढह रही हैं बहुमंजिली इमारतें
बन गए वीरान शहर जो कलतक थे आबाद
नहीं कटतीं दहशत में भयावह रातें, कहतीं औरतें।
अनगिनत असंख्य लाशों से अटा पड़ा है हर ठौर
चीख- चिल्लाहट से थर- थर कांपती धरती
संवेदनाएं मर गई हैं, वेदना- ही- वेदना है,
सिसक- सिसक कर आत्मपीड़ा है बयां करती।
जल रहा है जिन्दा मानव आज अपने ही घर में
हो गए हैं स्वजन पराए – से भागते हुए दिखते
बेगुनाह लाखों बच्चे- बूढ़े- युवा मृत हो गए,
कांपती हैं कलम मेरी यह दारुण व्यथा लिखते।
मत बहाओ खून, रोको पाशविकता आज तुम
क्या सज़ा है मौत अपने मुल्क में रहने की यह?
क्या लाशों के अम्बार पर खड़ा होगा सियासी महल
अरे विवेकशील मानवो! शान्ति की तुम बात कह!
युद्ध है न समाधान किसी भी समस्या का कभी
इससे तो मरती है मनुजता, मिटती है बस सभ्यता
हो निशस्त्रीकरण जग में, विज्ञान की बर्बरता मिटे
अहंकार रहित शासक बनें, बढ़े शान्ति,मिटे कटुता।
डॉ.राहुल