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हमारी गुरु- शिष्य परम्परा

क‌ष्ण पक्ष को पार कर पूर्ण चंद्र हमें प्रेरणा देता है पूर्णता की। पंद्रह दिवस की कटाई -छटाई के उपरांत जो पूर्ण रूप उसे पूर्णिमा को मिलता है वह द्योतक है उसकी अविराम साधना का।शायद इसीलिए वर्ष की बारहों पूर्णिमा अपने आप में समृद्ध हैं,किसी ना किसी सांस्कृतिक सौष्ठव से। श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबंधन का पर्व है तो शरद पूर्णिमा भागवत की रहस्य गाथा का परिचय। आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का गौरव प्राप्त है। मनीषियों की मान्यतानुसार आषाढ़ के काले मेघखंड अज्ञानी शिष्यों की तरह हैं जिनके मध्य स्थित पूर्ण सुधाकर करुणा और धैर्य का मूर्त रुप लिए गुरु की तरह विराजमान रहता है और इसीलिए इस पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का उपयुक्त दिवस माना गया है।इसे अठ्ठारह पुराणों के रचयिता महर्षि वेदव्यास का पूजन दिवस मानते हुए व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।हमारे भारतीय मानस पटल पर गुरु का स्थान सर्वोपरि माना जाता है क्योंकि हमारी भारतीय मनीषा ने ‘कृष्ण वन्दे जगद गुरुम् ‘कहकर गीता गायक श्रीकृष्ण की वंदना की है तो ‘तुम त्रिभुवन गुरु वेद बखाना ‘कहकर भगवान शंकर को भी परम गुरु पद पर ही देखा है।नटवर नागर और नटराज दोनों ही हमारे लोकमानस में गुरुपद पर विराजमान हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में गुरु वंदना इन शब्दों में की है —

‘बंदऊं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि

महामोह तम पुंज जासु बचन रविकर निकर’ 

इस सोरठे में कविवर ने स्पष्ट कहा है कि जीवन के महामोह के अंधकार का नाश करने हेतु गुरु के वचन सूर्य किरणों के सदृश हैं। उन्होंने गुरु के चरणों को कमल के सदृश कहकर यह भी बताया है कि जीवन पथ पर उनके निर्विकार चित्त और चरणों के चिन्हों का अनुसरण ही परम हितकारी है।

        कबीर ने गुरु महिमा का ज्ञान भाव विह्वल होकर इन शब्दों में किया था —‘सब धरती कागद करूं लेखनि सब बनराई

सात समुद्र मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाई’

क्योंकि उन्होंने तो गुरु को गोविंद से भी उच्च स्थान दिया था –‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय ‘इसीलिए उन्होंने सारी धरती का कागज,सारी वनराशि की लेखनी और सात सिंधुओं की स्याही बनाकर भी गुरु की महिमा का गान असंभव ही माना था।

       वास्तव में गुरु में अप्रतिम धैर्य,दया, करुणा,प्रीति तो होती ही है साथ में होती है अंधकार को दूर करने की शब्द सामर्थ्य क्योंकि गुरु शब्द जिन दो अक्षरों से बना है वह उसके संपूर्ण भाव को समेटे है।प्रथम अक्षर अंधकार का और दूसरा उसके विनाश का वाचक है इसीलिए उसके वचनों में मोह से मुक्त कराने की क्षमता होती है, चेतना पर पड़े अज्ञान के आवरण को गुरु ही हटा सकता है। वास्तव में गुरु के रूप में मानवीय काया धारण कर यह परमात्मा की करुणा ही उपस्थित है जो शिष्य को मंतव्य का बोध कराता है और सन्मार्ग दिखाता है वहां तक पहुंचने का।यदि गुरु में इतनी शक्ति है तो शिष्य में भी आवश्यकता है सच्ची श्रद्धा, आस्था और विश्वास की तथा अपेक्षा है अनुसरण की। महामहिम राधाकृष्णन जी ने अपना जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का आग्रह इसीलिए किया था कि हमारी ये परंपरा बनी रहे और गुरु -शिष्य परंपरा को ह्रदयंगम रखा जा सके तथा इस संबंध में आये विकार भी दूर किये जा सकें और हमारे देश में पहले जैसी गुरु-शिष्य संभव हों।

        डॉ शैलबाला अग्रवाल आगरा

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