एक और आंग्ल वर्ष 2023 समाप्त हो चूका है और आंग्ल नव वर्ष 2024 का दस्तक हुआ है यह वर्ष राम मंदिर स्थापना और लोकसभा चुनावों की भेंट चढ़ने वाला है। उधर कुछ लोग जान बूझकर दिवाली होली क्रिसमस का विरोध ऐसे करते हैं जैसे उन्होंने देश का ठेका ले रखा है। उत्तर भारत में क्रिसमस का विरोध होता है नया अनुभव , केरला में भाजपा क्रिसमस मनाती है उससे नया अनुभव, कर्नाटक में कांग्रेस हिन्दू विरोधी है नया अनुभव, मध्य प्रदेश में कांग्रेस ही हिन्दू है उससे भी नया अनुभव । हिंदी पट्टी में गाय के नाम पर बवाल होता है नया अनुभव , नॉर्थ ईस्ट और गोवा में उम्दा मीट उपलब्ध कराने का वादा किया जाता है उससे भी नया अनुभव । पार्टियां अपने उन तमाम नेताओं के साथ खड़ी रहती है, जो किसी अपराध में आरोपी होते हैं नया अनुभव, नेता सदन के गरिमा की मिम्मीक्री कर उसे बदनाम कर सकते है उससे नया अनुभव । इतने विरोधाभास के बावजूद जनता इन सबके साथ रहती है। इसका मतलब ये हुआ कि किसी भी सूरत में, किसी भी हाल में जनता को नव वर्ष मंजूर है। नफरत के आधार पर दुनिया में बहुत लोग शीर्ष पर पहुंचे, लेकिन आज इतिहास में उन्हें किस रूप में याद किया जाता है, ये भी याद रखा जाना चाहिए। कितनी आसानी से नारा दे दिया जाता है, अबकी बार नई सरकार । मीडिया ओपिनियन के नाम पर धारणा बनाता है, मोदी ही जीत रहे हैं। विपक्ष पर हमलावर होता है। धारणा बनता है कि विपक्ष बिखरा हुआ है, वह मोदी मुकाबला नहीं कर सकता। तीन राज्यों में भाजपा की जीत के बाद मीडिया धारणा बनाने लगा है कि लोकसभा का चुनाव तो औपचारिकता मात्र है, मोदी जीत चुके हैं। केंद्र सरकार पर दो सौ पांच लाख करोड़ का कर्ज हो गया, ये केवल विपक्ष के लिए चिंता का विषय है। बहस का विषय ये है कि इंडिया गठबंधन में फूट हो गई है। ये नाराज हो गया, वो नाराज़ हो गया। सब कुछ एक पक्षीय हो चुका है। जनता ठगी जा रही है, ठगे जाने को वो अपनी उपलब्धि मान रही है। नेता कहीं जा रहे हैं तो सेल्फी जरूर लें रहें । दो दिन पहले जेएनयू पर लिखी एक किताब ‘जेएनयू अनंत, जेएनयू कथा अनंता’ पढ़ मन में विक्षोभ हुआ । सच पूछिए तो जिस तरह एक वामपंथी विश्वविद्यालय की कल्पना मेरे पास थी जेएनयू ठीक वैसा ही लगा। अच्छी यूनिवर्सिटी में न पढ़ पाने का पुराना मलाल गहरा गया । किताब में लेखक लिखते हैं कि साइंस के विभागों के स्टूडेंट क्लास रूम और लैब के अतिरिक्त और किसी तरह की गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेते हैं।ज्यादातर साइंस के स्टूडेंट दक्षिणपंथी होते हैं। इस बात ने एक बहुत पुरानी हायपोथिसिस की तस्दीक की। जब मैं स्कूल में रहा उस वक्त नवीं क्लास से ही विषय का चुनाव करना होता था। बायोलॉजी में डिसेक्शन के लिए ग्रुप चुना था तो तय कर लिया था कि बायोलॉजी ही ली जाएगी। गणित में बहुत बचपन से ही डब्बा गोल था। तो गणित नहीं पढ़ सका। साइंस उस वक्त लड़कियों के अच्छे नंबर से पास होने की गारंटी तो था लेकिन रोजगार की दृष्टि से उसमें कोई स्कोप नहीं था। दूसरे, किचन में काम करना न तो पसंद था और न ही आता था, तो होम साइंस भी नहीं लिया जाना था। बस दो विषय बचे थे कॉमर्स औऱ आर्ट्स। जाना तब ये भी था कि गणित से निजात कॉमर्स लेने में भी नहीं है। अपने परसेप्शंस थे। उनकी मेरी जिंदगी और मेरी सोच-समझ में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। उस वक्त सब कहा करते थे कि साइंस और कॉमर्स के स्टूडेंट्स का जनरल नॉलेज एकदम पुअर हुआ करता है। तो अब आर्ट्स के अलावा औऱ कोई विकल्प भी नहीं है। आर्ट्स नहीं लिया।
चुनाव तो खैर अपनी सुविधा से किया था, बात जहन में दर्ज कर ली थी। बीच-बीच में कॉमर्स और साइंस पढ़ने वाले साथियों को ऑब्जर्व भी करता रहा । बाद में पाया कि बाऊजी जो कहते हैं, वो गलत भी नहीं है, लेकिन फिर लगा कि यह भी एक किस्म का सामान्यीकरण है। एक विचार यह भी आया कि दुनिया उतनी ही नहीं है, जितनी मेरे इर्दगिर्द है। एक विषय सोशल मिडिया भी है जहां से बहुत से रीसर्चर निकल रहें। यह मेरे दायरे से बाहर की दुनिया है और बहुत विस्तृत है। हो सकता है उस दुनिया में ये बात सच नहीं हो। लगातार ऑब्जर्वेशन से कुछ चीजें स्पष्ट हुईं, ऐसा नहीं है कि सोशल मिडिया पढ़ने वाले सारे नेता टाईप स्टूडेंट्स की समझ अच्छी हो , फिर भी दूसरे विषयों के औसत स्टूडेंट्स से वे बेहतर ही मिले। इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और आईटी की दुनिया में बेहतर करने वाले युवा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक सोशल मिडिया में रिसर्च कर रहें। ज़बकी हम जिम्मेदारियाँ और कार्यक्षेत्र के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ये उस वक्त की बात है, ज़ब फेसबुक तो आ चुका था, मगर व्हाट्स एप अभी आना था। कई साल मैं इस सवाल से जूझता रहा कि आखिर स्कूलों में शुरुआती सालों में सोशल मिडिया के विषय क्यों नहीं पढ़ाए जाते हैं? उसमें भी इतिहास और नागरिक शास्त्र पर इतना जोर क्यों हुआ करता है? शुरू में लगता था कि शायद ये विषय बच्चों को सरलता से समझाए जा सकते हैं, इसलिए सिलेबस इस तरह से बनाया गया है। तब पहली बार यह बात ठीक-ठीक तरह से समझ आई कि दरअसल इंसान के दुख, सुख, परेशानी, तकलीफ प्राकृतिक उतने नहीं हैं, जितने व्यवस्थागत हैं। इन्हीं व्यवस्थागत परेशानियों को समझने के बाद ही हम इंसान की गरिमा और बेहतरी के लिए रास्ता निकाल पाएँगे।अपनी पढ़ाई के दिनों से ही प्रोफेशनल एज्यूकेशन का डंका बजने लगा था। बेरोजगारी के कई सालों तक प्रोफेशनली एजूकेटेड न होने का मलाल सताता रहा था। इन कुछ सालों से जबसे हर जगह सोशल मिडिया में लगातार बढ़ते क्रेज और कम होते रोजगार औऱ इसकी वजह से इस स्ट्रीम से दूर जाते स्टूडेंट्स देखता रहा हूँ तो खौफ होने लगता है। इन कुछ सालों में यह समझ पुख्ता हुई है कि अमूमन साइंस, टेक्नोलॉजी, क़ॉमर्स, मैनेजमेंट जैसे विषय पढ़ने वाले स्टूडेंट्स दरअसल समाज और उसकी समस्याओं से पूरी तरह से कटे रहते हैं। मोटे तौर पर यह प्रिविलेज्ड तबका हुआ करता है। जिसकी जिंदगी में बस रोजगार ही एक समस्या होती है।रोजगार मिलते ही वह मस्त हो जाता है। पिछले सालों में अपने इर्दगिर्द के बच्चों को देखते हुए भविष्य के समाज का भयावह चित्र उभरने लगा है। समझा कि साहित्य, राजनीति, समाज, संस्कृति औऱ इतिहास से दूर होते युवा बहुत जल्दी निर्देश पर काम करने वाले रोबोट बनाए जा सकते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था इस तरह के युवाओं से न सिर्फ बची रह सकती है बल्कि फल-फूल सकती है। अब पैसा उनकी समस्या नहीं रही है। उच्च पदों पर नियुक्त लोगों को लाखों के पैकेज देकर सैटल्ड किया जाता है और बाकियों को बेहतर काम करके ऊपर पहुँचने के सपने दिखाए जाते हैं। इससे एक किस्म के आत्म-केंद्रीत समाज का निर्माण हो रहा है। जिसमें पैकेज, वीकएंड एंजॉयमेंट्स, पार्टियाँ, वेकेशंस, अपरेजल, प्रमोशन, परफॉर्मेंस, टारगेट, टारगेट अचीवर, क्लाइंट्स, मैनेजमेंट, टाइम मैनेजमेंट, वर्क-लाइफ बेलैंस, आदि से आगे और कुछ शामिल नहीं होता है। बहुत प्लांड तरीके से सोशल मिडिया को हमारी समझ के दायरे से अलग किया जा रहा है। शिक्षा को सिर्फ उत्पादकता से जोड़ दिया गया है। मजे की बात यह है कि यह आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह की व्यवस्थाओं के लिए मुफीद है, मगर इससे समाज बीमार हो रहा है।
पंकज कुमार मिश्रा, मिडिया पैनलिस्ट एवं पत्रकार जौनपुर यूपी