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मेरी की व्यथा ही मेरी की कथा है

मैं सीता हूँ, विनीता हूँ, लोग मुझे देवी कहते हैं। जग जननी कहते हैं, माता कहते हैं। स्त्रियों के लिए आदर्श स्वरुपा हूँ, पति अनुगामिनी हूँ, धैर्य प्रतिरुपा हूँ, आज्ञाकारिणी पुत्री हूँ, शालिनी हूँ, कामिनी हूँ।

 मेरे पिता जनक, विदेह, महाज्ञानी राजा हैं। मेरे श्वसुर सम्राटों के सम्राट, रथियों में महारथी दशरथ हैं।

और पति! उनके विषय में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाना है। पुरुषों में पुरुषोत्तम, भाईयों के आदर्श और प्रजाओं के राजा राम हैं। राम शब्द ही अपने में संपूर्णता का प्रतीक है। प्रजारंजन , सर्व दुखभंजन, विश्व के कर्णधार हैं, पुरुषों में अग्रणी, एक पत्नीव्रतधारी नाम मिला है उन्हें।

ये है मेरा परिचय। शायद ही किसी स्त्री का ऐसा पावन परिचय हो। मैं सौभाग्यशालिनी हूँ। परंतु मैं सीता! मेरी अपनी कोई पहचान नहीं। जनक नंदिनी होने से जानकी कहलाती हूँ, मिथिला राज्य की राजकुमारी होने से मैथिली कही जाती हूँ, विदेहराज की पुत्री होने से वैदेही कहलाती हूँ, अयोध्या के राजा राम की पत्नी होने से महारानी का भी नाम मिला।

फिर भी मेरी अपनी व्यथा है, मेरी व्यथा ही मेरी कथा है। लोगों की अपेक्षाओं की कसौटी पर घिसते-घिसते थक गयी और अंत में माँ की गोद में ही शरण मिली। संभवतः मेरा जन्म ही दूसरों की अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिए ही हुआ था।

बचपन में  मैंने शिवधनुष क्या उठाया, मेरे पिता ने मेरे विवाह को ही दाँव पर लगा दिया। मेरा विवाह उनकी प्रतिज्ञा के अधीन हो गया और मैं पिता के निर्णय के आगे झुकी रही। किसी ने नहीं जाना मेरे मन में कैसा द्वंद चल रहा था। निर्बल राजाओं के निराश चेहरे जैसे मुझे चुनौती दे रहे थे। उनकी हार मेरी व्याकुलता को बढ़ा रही थी। तभी अंधकार में रामरूपी सूरज उदित हुआ और धनुष टूट गया। अंततः मेरा विवाह संपन्न हुआ।

मेरे पति का राजतिलक होते-होते वनवास हो गया। पति की अनुगामिनी होने से मेरा वन में जाना अनिवार्य था। वनों के कष्ट सहते- सहते जब यह लग रहा था की घर वापसी निकट ही है तो एक दिन ऐसा आया, जिसने मेरा शेष पूरा जीवन ही अंधकारमय कर दिया। शुपर्णखा मेरे जीवन की कालिमा बनकर आई। तुलसीदास जी ने अपनी रामचरित मानस में लिखा है कि सीता लंका के लिए निशा बनकर आई है। परंतु मेरी निशा तो शुपर्णखा के आते ही आरंभ हो गयी थी।

मेरे सामने ही एक अन्य स्त्री मेरे पति को प्रेम और विवाह का प्रस्ताव दे रही थी। और मैं मूक दर्शक की भाँति केवल देखती रही। यद्यपि मेरे पति का उस विवाह प्रस्ताव को ठुकराना मुझे अच्छा लगा। परंतु इसका परिणाम?

मेरा अपहरण।

चारों ओर राक्षस ही राक्षस। जहाँ स्त्रीयाँ राक्षसों की कल्पनामात्र से डर जाती हैं वहाँ मैं उनके बीच बैठी हुई भगवान से अपने जीवन की भीख मांगती रही। रावण मुझे मारने की धमकियाँ देता रहा, मेरे संमुख विवाह का प्रस्ताव रखता रहा। मैं एक पतिव्रता नारी कैसे ये सब सहती रही किसी ने सोचा? कैसे काटा होगा वो समय? एक ऐसा समाज जो न पहले कभी जाना गया, न देखा गया, विचार अलग, पोशाक अलग, व्यवहार अलग, केवल भयंकरता, जिधर देखो भयानक आग बरसाते चेहरे। पर क्या करूँ मुझे तो सब सहना है क्योंकि मेरी नियति यही है। पल -पल मरती जीवन आशा, ऐसा लग रहा था मानो मेरे जीवन की लौ बुझने ही वाली है, तभी एक मधुर आवाज़ ने जैसे मरते हुए में प्राण डाल दिये हों। हनुमान आये राम की कुशलता का समाचार लाये। पर मैं वहीं की वहीं। मुझे लगा शायद हनुमान जी मुझे इस जीते जागते नर्क से निकाल ले जायेंगे। परंतु उन्होंने मुझे साथ ले जाने में असमर्थता जताई। क्योंकि रामाज्ञा नहीं थी। केवल मेरा समाचार लेकर हनुमान चले गये। मेरे पास केवल राम के आने का आश्वासनमात्र रह गया। मुझे दुःख हुआ पर हाय रे मेरा भाग्य। फिर मुझे रावण की उन्हीं दीवारभेदी कामुक निगाहों से स्वयं को बचाना होगा। युद्ध हुआ, घनघोर युद्ध हुआ। रावण का अंत हुआ और मेरी परीक्षा आरंभ!

संदेह सतीत्व पर भारी पड़ा! अपना सतीत्व साबित करने के लिए मुझे अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। यह परीक्षा मुझ से ही क्यों ली गई? क्या केवल इस लिए क्योंकि मैं रावण के घर में रही थी? राम ने यह परीक्षा क्यों नहीं दी? वो भी तो वनों में भटकते रहे। जब मेरे सामने एक परस्त्री प्रणय निवेदन कर सकती है तो क्या मेरी अनुपस्थिति में ऐसा नहीं हुआ होगा? लेकिन मैं तो स्त्री हूँ पुरुष नहीं, सज़ा केवल स्त्रियों को मिलती है। राम ने हमेशा समानता की बात कही, परंतु मेरे हिस्से में केवल पक्षपात?

अयोध्या पहुंचे लगा संभवतः सारी पीड़ाऔं का अंत हो गया। पर अभी तो समाज का बहुत बड़ा तमाचा मेरे मुह पर लगना शेष था। राम राजा बने और मैं महारानी। फिर से मेरे चरित्र पर आक्षेपों की वर्षा! महारानी सीता रावण जैसे राक्षस के घर में रहकर भी पवित्र कैसे रह सकती है? अग्नि परीक्षा वन में हुई थी, किसने देखी? अगर महारानी ऐसी है तो प्रजा कैसी होगी? समाज की व्यवस्था बिगड़ जायेगी। महारानी सीता को राजा राम अपने घर में कैसे रख सकते हैं?

राम राजा थे, राजधर्म सर्वोपरि था। यहाँ भी पतिधर्म राजधर्म से हार गया और गाज गिरी मुझे पर। गर्भावस्था में मुझे घर से निकाला और देश-निकाला दे दिया गया। राम राज्य को त्याग कर मेरे साथ क्यों नहीं आये? जब राम को वनवास हुआ था तो बिना किसी हिचकिचाहट के महलों के सुखों को तिलांजलि देकर पत्निधर्म निभाया था। महलों में रहने वाली सीता काँटों पर चली, छत्तीस प्रकार का भोजन करने वाली सीता ने घासफूस खाया और उफ़ तक नहीं की। सबके लाख मना करने पर भी मैंने पति का साथ नहीं छोड़ा था। राम ने पलभर में सारे संबन्ध तोड़कर मुझे त्याग दिया। मेरा दुर्भाग्य यहीं समाप्त नहीं हो जाता, भरे दरबार में जब मेरे पुत्रों ने अपना परिचय दिया तो भी यही प्रश्न मुह खोल कर मेरे सामने खड़ा हो गया, कि क्या मेरे ये बालक राम के ही हैं?

कैसे साबित करूँ स्वयं को? अपने सतीत्व को? राम क्यों एक मूर्ति बने केवल प्रजा के अनुरंजन के लिए मेरा अपमान होते देख रहे हैं? क्या एक बार भी उन्हें अपनी पत्नी का पक्ष सही नहीं लगा? प्रजा के लिए राम का एक-एक शब्द ब्रह्मवाक्य था तो क्यों राम ने प्रजा के इन प्रश्नों का बहिष्कार नहीं किया?

मैं नारी, जिसे अबला कहा गया, निरीह गाय की तरह देखा गया। नारी को तो अपना पक्ष तक रखने की अनुमति नहीं थी। मेरी इस व्यथा को किसने समझा? किसने मेरे लिए आवाज़ उठाई? ना समाज, ना कवि, ना गायक, सबने मुझे धैर्य की प्रतिमूर्ति बनाकर बस मंदिर में बिठा दिया।

डॉ. लता गोयल, द्वारका, दिल्ली

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