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मैं शिव तो नहीं : महेंद्र शर्मा (हास्य कवि)

मैं शिव तो नहीं, जो पी जाऊं गम के हलाहल को। आंसुओं का अथाह सागर क्या कभी सूख पाएगा? कहने को सभी कहते हैं-दुख के पश्चात् सुख मिलता है, प्रत्येक रात प्रभात के समझ दम तोड़ देती है। रामायण में तुलसीदास ने लिख दिया है, ‘सब दिन होत न एक समाना।

मैं नहीं मानता इस तथ्य को। कब तक कोई जिए नरक की जिन्दगी ! बेहताशा मजबूरियां, अनेकानेक पारिवारिक-आर्थिक समस्याएं, जो आए दिन शरीर में खून के कतरों को जलाकर सुखा जाती हैं। कौन अपना, कौन पराया! सभी नाते-रिश्ते मेरे लिए झूठे साबित हो चुके हैं।

आंत्महत्या की कई बार ठानी है दिल में। कहते हैं आत्महत्या पाप है, जिन्दगी के समक्ष हार है। जिन्दगी संघर्ष करने पर ही कंचन की तरह दमकती है।

आत्महत्या क्या बुरी चीज है? जीवन का अन्जाम मृत्यु है। यह निश्चित है कि मौत बहाना लेकर आती है। फिर मैं भी ट्रेन के आगे झोंक दूं शरीर को। फांसी का फंदा डालकर झूल जाऊं अथवा जहर की पुड़िया मुंह में रख लूं। इससे भी सहज उपाय नींद की पन्द्रह-बीस गोलियां सोते वक्त खा लूं। फिर मृत्यु भी सुखद होगी। बहाना बन जाएगा। कुछ दिन की चर्चा का विषय रहेगा-जिन्दगी से हारकर मौत को गले लगा लिया, लेकिन अनन्त दुःखों का अंत तो हो जाएगा। कुछ पल आंखें भिगोकर भूल जाएंगे सगे-सम्बन्धी, रिश्ते-नातेदार। अपनी दुनिया में सभी मस्त होगे जैसे आज हैं-मां-बाप, भाई-बहन, यार-दोस्त ।

बचपन के दिन थोड़े ही भूला हूं। जब सांयकाल फटे कपड़ों में धूल-धूसरित हुआ खेलकर घर में आता और रोटी मांगता तो मां कहती, “थोड़ी देर रुक जा गणेश। तेरे बापू जा जाएंगे, आटा लाएंगे, फिर जल्दी से रोटी बनाकर प्यार से खिलाऊंगी।”

मां के दुलार से कुछ पल के लिए भूख मानो मर-सी जाती, परन्तु जब बापू आते, उनके हाथ में एक छोटा थैला होता और थैले में किलो-दो किलो चावल ।

मां मुझसे आंख बचाकर थैला छिपा देती। चावल उबाल मिट्टी के बर्तन में डालकर दे देती।

मैं चावल से संतुष्ट नहीं होता। चावल के सहा कब तक नन्हीं जान सब्र करती। पूरा परिवार चावल खाकर सो जाता बापू के कारण। कभी उन्होंने जमकर काम नहीं किया। सरकारी नौकरी कई बार छोड़ी। बस, ऐसे ही मेहनत-मजदूरी करते-कराते लम्बे परिवार की गाड़ी खींचते आए। पूरा परिवार, आमदनी का साधन नहीं। मां की बदौलत घर बंधी बुहारी की तरह रहा। हम भाई पढ़ाए भी पेट काटकर। पढ़ाई के लिए मां के जेवर तक बलि चढ़ गए।

तैसे-जैसे दुख झेलते यहां तक पहुंचे। भाई अच्छी नौकरी पर है। मैं वहीं का वहीं, रास्ते का पत्थर, किसी गड्ढे का महीनों से रुका हुआ गंदला पानी।

इतनी बड़ी दुनिया में आज मुझे कोई भी अपना दिखाई नहीं देता। सान्त्वना दिखाने मात्र मेरे चारों ओर मजमा लगाए बैठे हैं। तभी आत्महत्या का विचार मेरे मस्तिष्क में कौंधता है।

मेरे बीवी है, एक बच्चा भी है। क्या कमी है मेरे लिए। फिर नीरस है जिन्दगी। वे मेरे साथ नहीं। गत चार वर्षों से वे गांव में रह रहे हैं। मैं थोड़े-से पेसों की नौकरी कर रहा हूं। न अच्छा पहनता हूं, न खाता हूं। यहां तक कि बीमार हो जाने पर फूटी कौड़ी तक पास में नहीं रहती। यार-दोस्तों से उधार लेकर दवाई जुटा पाता हूं। मरने का जी चाहता है, परन्तु बीवी-बच्चे का खयाल ॥॥ जाता है। मेरे आत्महत्या कर लेने पर उनका क्या होगा? विधवा हो जाएगी। दुनिया जीने नहीं देगी उसे। बच्चे को कौन सम्भालेगा? भाई-भाभी, अथवा मा-चाप? नहीं, अनाथ बनकर वह सड़कों पर भीख मांगेगा। रोटी के लिए घोर लुटेरा बन जाएगा। समाज के लिए कलंक होगा।

आज जहां हमारे भावी जीवन का सवाल है, वह निःसंशय निर्जन झाड़ियों का समूह है। दूर भागना चाहते हैं सभी मुझसे ही नहीं, मेरे बीवी-बच्चे से भी।

क्योंकि मैंने शादी की, बच्चा पैदा किया। आसमान से थोड़े ही टपका है वह। लेकिन कोई नहीं सोचेगा, शादी मैंने नहीं, बापू-मां ने अपने फर्ज उतारने के लिए, मेरी भावनाओं की अनदेखी की। उनके लिए मैं बेरोजगार होते हुए इस जहर को हलक में उड़ेल गया। भरा-पूरा परिवार आश्चर्यचकित था। मेरी पलकों से लुढ़कते आंसुओं पर किसे तरस आता, शादी का उन्माद उसे ले बैठा था। फिर क्रम चलता रहा झगड़ों का जैसे कि आम घरों में होता है। आर्थिक संकट महासंकट है। कलह की जड़ है। पनपती रही, कलह का पौधा पनपता रहा। प्राइवेट नौकरी की। जितना बचा घर में देता रहा। बी.ए. नौकरी करते-करते की, शायद सरकारी नौकरी मिल जाए।

परन्तु निराशा ही हाथ लगी। अकेला न घर पैसा भेज सकता हूं, न अपना पेट अच्छी तरह पाल सकता हूं। इन्हीं हालात को देखकर मैंने दो वर्ष पहले बीवी को कहा था, “सुन रतिया, बच्चे पैदा करना जरूरी नहीं जितना जरूरी उनका पालन-पोषण है। हम जिल्लत की जिन्दगी जी रहे हैं। स्वयं भिखारी के समान हैं। एक और भिखारी क्यों सड़कों पर आने दें?”

इस पर वह बुझ गई थी। दुःखी होकर बोली, “पांच साल हो गए शादी को, एक भी बच्चा नहीं हुआ। पीहर में भी ताने, ससुराल में भी छींटाकशी करते हैं सभी। मुझे सहन नहीं। चाहे पहली बार कुछ भी हो जाए, लड़का या लड़की।”

लड़का हुआ, दो साल का हो गया। एक पेट, फिर दो, अब तीन। नौकरी सिर्फ थोड़े पैसे की। मैं यहां, बीवी-बच्चे गांव में छोटे भाई की कमाई पर पल रहे हैं।

आज चिट्ठी मिली। लिखा था-गणेश, तुमने पहले भी पत्रों का जवाब नहीं दिया। शायद इस चिट्ठी का भी जवाब न दो।

हम यहां बहुत दुःखी हैं। हम यहां चैन से रहना चाहते हैं। पर रतिया, तुम्हारी बीवी ने नाक में दम कर रखा है। सारे दिन दंगा-फसाद करती रहती है। घर से अलग होने की रट लगाए हुए है। कहां से अलग कर दें। इसे क्या देकर अलग कर दें। तुमने हमें कितनी नगदी भेजी है। इस झगड़े से प्रमोद बहुत दुःखी है। वह इस घर का खर्चा निकाल रहा है। तुम्हारे बीवी-बच्चे का भी पह भर रहा है। अगर उसे कुछ हो गया तो हम कहीं के भी नहीं रहेंगे। बरबाद हो जाएंगे। अगर तुमने इस चिट्ठी पर गौर नहीं फरमाया तो मैं रतिया को लेकर तुम्हारे पास आ जाऊंगा।

– तुम्हारा सांसारिक पिता

मेरी बीवी-बच्चे उन पर भार। प्रमोद आज उनकी आंखों का तारा। मैं दुश्मन। शायद इसलिए कि वह कुंवारा है। जब उसकी शादी हो जाएगी। कोसों दूर भागेगा घर से। मैं परेशान हो गया था पत्र पढ़कर कि फिर एक चिट्ठी मिली। बीवी की लिखी हुई थी। लिखा था-

वह मेरे जीवन-साथी, मैं राजी से हूं। आप भी खुश होंगे। मैं घर में बहुत तंग हूं। मेरे साथ बहुत झगड़ा होता है। आपके साथ हमारा जीवन है। हमारा संसार में कोई नहीं। फिर भी आप ठीक रहना। मुन्ना बीमार है। घर वाले दवाई नहीं दिलवा रहे। मेरे पास पैसे नहीं। आपने मुझे एक भी पैसा नहीं दिया आज तक। अगर कभी पांच-दस रुपये दे देते तो आज यह दिन नहीं देखने पड़ते। मुझे घरवाले कहते हैं, इसका खसम धेला नहीं भेजता, हम कहां से दवा-दारू करवाएं! अब आप ही बताओ, मैं क्या करूं? न जाने कब दिन बदलेंगे। आप चिन्ता न करना, हम खुश हैं। अपनी सेहत का खयाल रखना।

मुन्ना पापा बोलता है।

– आपकी रतिया

क्रोध के साथ-साथ आंखें सजल हो उठीं पत्र पढ़कर। ‘मुन्ना पापा बोलता है।

“मैं कैसा पापा, बेटे!” पितृत्व से मेरा मन भर आया। निश्चय कर लिया मैंने, गांव जाकर बच्चे को ले आऊंगा। अपने साथ रखूंगा। थोड़ा कमाऊंगा, थोड़े में गुजारा करूंगा। परन्तु अपनी जिम्मेदारी को दूसरों के कंधे पर भार-स्वरूप

नहीं रखूंगा।

दूसरे रोज घर पहुंचा। चौखट पर कदम रखते ही सारा परिवार दहाड़ मारकर में पड़ा। मैं समझ गया अनहोनी का क्रूर चक्र। रतिया इस दुनिया में नहीं रही भी। उसने आत्महत्या कर ली थी। क्रन्दन। न जाने कृत्रिम अथवा स्वाभाविक । मैं रो न सका। कह न सका। चुप भी न रह सका।

“मुन्ना कहां है?”

कुछ पल पश्चात् मेरी पथराई आंखों के सामने आंसुओं में भीगी मां मुन्ने को गोद में उठाए हुए खड़ी थी।

मुन्ना मुझे कुछ पल घूरता रहा। फिर उसके होंठ थर्राए, “पा…पा।” “ब… बेटा… बेटा!” रोते हुए मैंने उसे छाती से चिपका लिया। जी भर रोया। फिर मुन्ने को उठाकर वापस चला आया कठोर होकर।

मां ने कहा था, “गणेश, मुन्ना हमारे पास रहने दो।”

“नहीं मां, मुन्ना मेरा बेटा है, मेरी जिम्मेदारी। अब तलक बोझ थे मां-बेटे। रतिया चली गई। बचा-खुचा बोझ अपने साथ लिये जा रहा हूं।” मैंने फिर मुड़कर नहीं देखा कि क्या गुजरी घरवालों पर। पत्थर का टुकड़ा बन मैं आ गया।

आज मेरे साथ मुन्ना है। फिर भी अकेले हैं हम दोनों। उसके लिए मां नहीं, मेरे लिए जीवन-साथी। मेरे मां हैं, भाई है, बहनें हैं, लेकिन फिर भी एकाकीपन है। टीस-भरी अतीत की यादों से मन कई बार तड़प उठता है-खुद को मिटा देने को कि कब तक पीऊंगा जहर यादों का… मैं शिव तो नहीं।

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