Latest Updates

पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा ऐसी की लोकतंत्र हिल जाए ..!

पश्चिम बंगाल में स्थानीय निकायों  के चुनाव में हिंसा में विभिन्न दलों के एक दर्जन से अधिक कार्यकर्ता मारे गए हैं । हैरानी तब होती जब बंगाल में चुनाव हों और हिंसा ना होती , राजनीतिक हिंसा तो बंगाल के डी एन ए में है । नक्सली हिंसा  का नाम सुनते आ रहे हैं कई पीढ़ियों से , भाजपाई शासन में अर्बन नक्सल शब्द भी राजनीतिक शब्दकोश में जुड़ गया है परन्तु आज की पीढ़ी नक्सल शब्द के इतिहास से अनभिज्ञ है । पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में जानलेवा हिंसा की ख़बरें बेहद चिंताजनक है। लोकतंत्र में मतों की गिनती होनी चाहिए, लेकिन ये चुनाव शोकतंत्र में तब्दील हो गए हैं, जहां मतों की जगह शवों की गिनती हो रही है। ये पहली बार नहीं है जब प.बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा हुई हो। इससे पहले 2013 के पंचायत चुनाव में 13 और फिर 2018 के पंचायत चुनावों में भी मतदान के दिन 14 लोगों की हिंसा की वजह से मौत हो गई थी। यही हालात लोकसभा और विधानसभा चुनावों में रहे। 2019 के लोकसभा चुनावों में 9 और 2021 के विधानसभा चुनावों में 16 मौतें प.बंगाल में हुई थीं। हिंसा के इस इतिहास को देखते हुए ये भी कहा जाने लगा कि प.बंगाल में चुनाव में हिंसा अब जानी-पहचानी बात है। ऐसी धारणा का बनना निश्चित ही लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। अगर किसी राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा की आशंका हो, तो पहले से समूचे प्रशासनिक तंत्र और केंद्र व राज्य सरकार को मिलकर शांतिपूर्ण चुनाव के लिए प्रतिबद्ध होकर उस आशंका को गलत साबित करने में जुट जाना चाहिए। लोकतंत्र किसी एक के भरोसे नहीं चल सकता। इसमें वाक़ई सबका साथ चाहिए। प.बंगाल में इस साथ की बहुत कमी दिखाई दी। 8 जून को पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद से माहौल बिगड़ता दिख रहा था। मतदान के दिन ही 18 लोगों की मौत हो गई और जून से लेकर अब तक कुल 37 लोग मारे जा चुके हैं। हिंसा की आशंका देखते हुए ही कलकत्ता हाईकोर्ट ने छह जुलाई को कहा था कि 11 जुलाई को मतदान का नतीजा घोषित होने के बाद भी दस दिनों तक केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान राज्य में तैनात रहेंगे। लेकिन उच्च अदालत के निर्देश के बावजूद सुरक्षा इंतजामों में कहीं कोई बड़ी चूक हुई है, जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। दुख इस बात का है कि हालात का तार्किक विश्लेषण करने की जगह एक दूसरे पर आऱोप-प्रत्यारोप का खेल शुरु हो चुका है। लाशों पर राजनैतिक रोटी सेंकना किसे कहते हैं, प.बंगाल के हालात इस वक़्त इसका जीता-जागता नमूना दिखा रहे हैं। हाईकोर्ट के निर्देश के खिलाफ ममता सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। जहां उनकी अपील को खारिज करते हुए सर्वोच्च अदालत ने हाईकोर्ट के निर्देश को बरकरार रखते हुए जस्टिस नागरत्ना ने कहा था कि ‘चुनाव कराना हिंसा के लिए लाइसेंस नहीं हो सकता और हाईकोर्ट ने पहले हुईं हिंसा की घटनाओं को देखा है… चुनाव के साथ हिंसा नहीं हो सकती। अगर लोग अपने नामांकन ही नहीं दाखिल कर पा रहे हैं और उन्हें नामांकन करने जाते समय मार दिया जा रहा है तो मुक्त और निष्पक्ष चुनाव कहां रह गए?’ इसके बाद राज्य चुनाव आयोग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से और आठ सौ कंपनियां भेजने का अनुरोध किया। लेकिन उसमें से आखिर तक 660 कंपनियां ही यहां पहुंचीं।

                वैसे नक्सल की आग जब फैलती है तो अपने-पराए का भेद किए बिना सबको खाक करती जाती है। चुनाव के दौरान हुई हिंसा में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं की मौत को ढाल की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। प.बंगाल में जब वामपंथी सरकार रही, तब भी चुनाव में हिंसा होती थी और अब तृणमूल कांग्रेस के लंबे शासन में भी हालात नहीं बदले हैं, तो इसका सीधा अर्थ यही है कि राज्य में राजनैतिक विभाजन इतना गहरा है कि जनता के साथ-साथ लोकतंत्र को चलाने वाली संस्थाएं भी इसमें बंट चुकी हैं। इसका एक ही तरीका है कि इसे एक या दूसरे की समस्या न मानकर समूचे लोकतंत्र की समस्या समझा जाए और उसी समग्रता के साथ उसका समाधान तलाशा जाए।नक्सलबाड़ी प. बंगाल के सिलीगुड़ी ज़िले में एक गांव है जहां मई 1967 में चीन के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष साम्यवादी नेता माओ की पुस्तक ‘ लाल किताब ‘  से प्रेरित होकर कुछ युवा वामपंथियों ने जमींदारों के जुल्म से त्रस्त किसानों के समर्थन में हथियार उठा लिए। बंगाल में उस समय कांग्रेस पार्टी और वामपंथी दलों के बीच जबर्दस्त राजनीतिक उठापटक चल रही थी । इसी अनिश्चितता का लाभ उठाकर हिंसक तत्व पूरे राज्य में सक्रिय होने में कामयाब हो गए। बंगाल ही क्यों पूरे देश में आदर्शवादी युवा वर्ग नक्सलवाद के समर्थक बन गए। पूंजीपतियों के विरुद्ध बंगाल में जमकर हिंसा हुई। और जैसा कि प्राय: होता है इस आन्दोलन में बहुत से असामाजिक तत्व भी शामिल हो गए। नक्सलवादी हिंसा का दौर तो एक दशक बाद बंगाल से समाप्त हो गया पर विरासत में छोड़ गया देश के आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा का औजार और बंगाल की राजनीति में चुनाव के दौरान हिंसा ।  1977 से 2011 तक बंगाल में मार्क्सवादियों के शासन में चुनाव के दौरान हिंसा होती रही । हिंसा का आरोप लगता रहा शासक दल पर । 2008 / 09 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में हिंसा का दौर शुरू हुआ सिंगूर नन्दीग्राम में टाटा समूह की प्रस्तावित नैनो कार के निर्माण के लिए किसानों की भूमि के तथाकथित जबरन अधिग्रहण के विरोध में । ऐसी मान्यता है कि जो असामाजिक तत्व पहले मार्क्सवादियों के समर्थन में हिंसा कर रहे थे वही अब उसके विरुद्ध हिंसा करने लगे थे । ठीक यही आरोप – असामाजिक तत्वों का पाला पलटने – का आरोप तब लगा जब 2011 से सत्तारूढ़ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के विरूद्ध भाजपा सक्रिय हुई।  असामाजिक तत्व पाला बदलते रहते हैं और कभी एक दल तो कभी दूसरे दल के समर्थन या विरोध में हिंसा करते रहते हैं । इस तथ्य को देखते हुए महात्मा गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन में हिंसा का निरोध और अधिक सही लगता है । हिंसा की विरासत हिंसा ही है । भारत अहिंसक आन्दोलन के बाद स्वतंत्र हुआ इसलिए यहां लोकतंत्र टिका रहा । बंगाल में हिंसा – प्रतिहिंसा की परम्परा समाप्त हो इसकी ज़िम्मेवारी शासक दल की अधिक है । इसलिए तृणमूल कांग्रेस को वर्तमान चुनाव में हुई हिंसा की नैतिक ज़िम्मेवारी उठानी होगी । भाजपा विरोध के नाम पर लोकतांत्रिक विचार के लोग इसे अनदेखा नहीं कर सकते । अल्पकालीन लाभ के लिए दीर्घकालीन हानि को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

           __ पंकज कुमार मिश्रा मीडिया कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *