Latest Updates

Saga of a lost battle

ज़माने ने मारे जवाँ कैसे-कैसे

इतिहास गवाह है कि हम जब भी बाहरी आक्रान्ताओं से हारे तो उसका कारण न तो हमारे सैनिकों में शौर्य की कमी थी न गिनती की। हारे तो सिर्फ अपने आंतरिक विवादों और आपसी दुश्मनी के कारण। इतिहास के पन्ने खंगालिए जनाब और उनसे सबक सीखिए। इतिहास में दो भूलें ऐसी हैं जो भारत की बदनसीबी की जिम्मेदार रहीं। एक ने हमारी किस्मत में 800 वर्षो की गुलामी लिख दी और दूसरी ने देश का विभाजन कर दिया। विडंबना यह कि दोनों भूलें उन के द्वारा हुई जो पूरी तरह से देश को समर्पित थे। एक ऐसा वीर था जिनके किस्से स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। जिनकी बहादुरी के किस्से माँए हमें बचपन से सुनाती रहीं हैं और जिन पर हमें नाज़ है। मैं परमवीर सम्राट पृथिविराज चौहान की बात कर रहा हूँ। और दूसरे थे हमारे अपने महात्मा गांधी। वो सम्राट नहीं थे पर उनसे कम भी नहीं थे। पूरे हिंदुस्तान की कमान उनके हाथ थी।

भूलें कब हुईं और ज़माने ने कैसे-कैसे जवाँ मारे वो बताता हूँ। 1024 में मोहम्मद गजनबी ने अंतिम बार सोमनाथ पर आक्रमण किया था, सोमनाथ के मंदिर को लूटने। अगले 170 सालों में राजपूतों ने देश को बाहरी, बुरी नजर से बचाए रखा। रोके रखा। 1191 में घूरिड़ देश में कुछ ऐसी राजनीतिक उथल-पुथल हुई कि मोहम्मद ग़ोरी को फिर भारत की ओर रुख करना पड़ा. दास्तां लंबी है बस इतना समझ लीजे कि युद्ध को खेल समझने वाले राजपूत योद्धाओं ने उसे खदेड़ बाहर किया। पृथिविराज चौहान की अगुवाई में। राजपूत युद्ध को उत्सव तरीके से मनाते थे। लड़ाई के भी असूल होते थे। एक तूती होती थी। बिगुल जैसी। सुबह बजती थी तो युद्ध शुरू होने की अनाउन्स्मेन्ट और जैसे शाम ढलने पर बजी तो युद्ध बंद। सिवल लोगों को चाहे वो मर्द ही क्यों न हो, उन पर वार करना युद्ध-धर्म नहीं माना जाता था। घायल, असमर्थ सिपाही, स्त्रियों और बच्चों को तो, वो दुश्मन की तरफ के भी हों तो भी, सुरक्षा दी जाती थी। कुछ आदर्श थे, कुछ नियम थे, राजपूत लड़ाकों के। दुश्मन को हरा दिया बस बात खत्म। हार गए? ठीक है। अब घर जाओ। तुम्हें कोई जलील नहीं करेगा। इज्जत से जाने देंगे। और अगर हार गए तो हार मान कर खुद चले जाएंगे। वैसे ऐसा कम होता था। राजपूत हार कर घर लौटने की बजाए युद्ध की ज़मीं पर मरना प्रीफर करते थे।

मुश्किल इन्ही असूलों को लेकर हुई। 1191 में तराईं की लड़ाई में चौहान ने गौरी को इतनी बुरी तरह जख्मी कर दिया कि वो अपने पैरों पर खड़ा रहने के काबिल भी नहीं रहा। उस द्रश्य की कल्पना कीजिए जब गौरी अपंग और लहूलुहान जमीन पर पडा है और पृथ्वीराज हाथ में तलवार लिए उसके सीने पर सवार हैं। होना तो ये चाहिए था कि वो उसे मार देते। सलाहकारों ने कहा भी इसे मार दीजिए ये दया के योग्य नहीं। पर सनातनी हिन्दू की सोच! राजपूती नियम और जन्मजात दया के भाव। पता नहीं गौरी ने दया की भीख मांगी या नहीं पर ये जरूर कहा होगा कि बचू छोड़ देगा तो मैं फिर आऊँगा। पर राजपूती आदर्श सम्राट नहीं निभाएगा तो और कौन। उन्होंने उसे लड़ाई के मैदान से जाने ही नहीं दिया उसके लिए स्ट्रेचेर मँगवा कर उसे आराम से जाने दिया। ये आदर्शवाद देश को मंहगा पड़ा। अगले साल वो फिर आया और धूर्तता से उसने लड़ाई जीत ली। और हिंदुस्तान अगले 800 वर्षों के लिए गुलामी भुगतने के लिए मजबूर हुआ। 

फिर देश आजाद हुआ। एक निर्णायक क्षण में गांधीजी की खामोशी ने गजब किया। पर उसकी कहानी फिर कभी। मिलते हैं किसी रोज क्लब में। किस्से कहेंगे। जो आना चाहें अपनी इच्छा व्यक्त करें और इकठा होने की तरकीब ढूँडे। चाय पियेंगे गर्मागर्म। व्हाट से। तब तक पीरज़ादा क़ासीम रज़ा सिद्दीक़ी का एक शेर सुनिए। कासिम साब व्यंग वाली शायरी करते थे और उनका जन्म 8 फरवरी 1943 में कराची में हुआ था:

बे-दिली से हँसने को ख़ुश-दिली न समझा जाए,

ग़म से जलते चेहरों को रौशनी न समझा जाए!!

गाह गाह वहशत में घर की सम्त जाता हूँ, यानि वहशत से घर वापसी कर रहा हूँ

इस को दश्त-ए-हैरत से वापसी न समझा जाए!!

Mr. DINESH KAPOOR

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *