(राष्ट्र निर्माण में वैदिक शिक्षा ,ज्ञान की समीचीन भूमिका)
भारत में प्रागैतिहासिक वैदिक तथा सनातनी शिक्षा तथा ज्ञान का स्वरूप बड़ा ही विस्तृत है। भारत को भारतवर्ष भी आदिकाल की सांस्कृतिक शिक्षा और विशाल ज्ञान के भरपूर स्रोतों के कारण ही कहा जाता रहा है। भारत के ऋषि, मुनि, गौतम और अनेक संस्कृत के शिक्षकों ने भारत भूमि को न सिर्फ गौरवशाली बनाया बल्कि ऐतिहासिक रूप से इसे विश्व में सर्वोपरि स्थान दिलाया है। भारत के गौरव को और ऊंचा उठाने में स्वामी विवेकानंद जी की शिकागो यात्रा और उन के शक्तिशाली व्याख्यान ने द्विगुणित करने की भूमिका निभाई है।
भारतीय वेदों और संस्कृति ने वैश्विक स्तर पर नए नए आयाम का सृजन किया हैl वैसे भी जीवन परिवर्तन का पर्याय है एवं विकास का स्वरूप हैl यह सर्वकालीन सत्य है कि शिक्षा एवं ज्ञान का महत्व हर संस्कृति, सभ्यता और मानवीय समुदाय के जीवन में एक प्रकाश पुंज की तरह उन्हें विकास की दिशा दिखाते हुए आया हैl जिस देश की भाषा जितनी समृद्ध होगी उस देश की सभ्यता संस्कृति और ज्ञान उत्तम शिखर पर होगा और विकास की नई नई धाराएं बहेगीl मानवीय विकास के साथ मनुष्य को अधिक परिपक्व को समझदार तथा समृद्ध बनाने में शिक्षा,भाषा, ज्ञान और साहित्य का सर्वाधिक महत्व रहा हैl शिक्षा चाहे आपके परिवार से प्राप्त हुई हो, स्कूल कॉलेज अथवा किसी शिक्षण संस्थान से प्राप्त हुई हो या भारतीय संस्कृति के वैदिक शास्त्रों से प्राप्त हुई हो, शिक्षा का मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में बड़ी अहम भूमिका होती हैl शिक्षा भी समाज संस्कृति एवं सभ्यताओं के साथ परिवर्तनशील तथा प्रगतिशील हैl
शिक्षा, ज्ञान तथा संस्कृति और कला साहित्य को देश और विदेश की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता है। यह असीमित भंडार है एवं इसमें आकाशीय ऊंचाइयां भी शामिल रहती हैंl शिक्षा और ज्ञान न तो गहराइयां न ही नापी नजा सकती है, और ना ही इसकी ऊंचाई को देखा जा सकता है। पूर्वी सभ्यता जहां अध्यात्म, वेद ,पुराणों पर अवलंबित है, वहीं पश्चिमी सभ्यता ज्ञान विज्ञान नए नए अविष्कार और आकाश की अनछुई कई बातों को उजागर करने वाली है। ऐसी शिक्षा तथा ज्ञान के कारण मानव चंद्रमा पर पहुंच कर एक नई गाथा लिख पाया हैl वस्तुतः पूर्व तथा पश्चिम ज्ञान विज्ञान तथा शिक्षा के मामले में एकाकार हो चुका है कोई भी भेदभाव या विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती हैl पूरी सभ्यता ने जहां पाश्चात्य दर्शन से नए नए अविष्कारों हवाई जहाज, इंजन, ग्रामोफोन, रेडियो एवं नई नई टेक्नोलॉजी को अपनाया है वहीं पश्चिमी दर्शन ने भारती ज्ञान विज्ञान संस्कार आयुर्वेद योग धर्म दर्शन को अपना कर अपनी जीवनशैली में शांति तथा सौभाग्य स्थापित किया हैl यह सब शिक्षा भाषा एवं ज्ञान के बदौलत पूर्व और पश्चिम का मेल संभव हो पाया हैl शिक्षा और भाषा सदैव ही अज्ञानता के तमस में एक प्रकाश पुंज की तरह देदीप्यमान होता रहा है, नवजीवन की विकास धारा में सदैव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया हैl हमारे कई धर्मों में जिनमें जैन ,बौद्ध दर्शन, नव्य वेदांत तथा भारतीय संस्कृति के नवीन चिंतन के सामने आने से नवयुग की कल्पना को साकार किया है। पश्चिम के कई विद्वान और चिंतक जिनमें प्लूटो, अरस्तु, सुकरात, कार्ल मार्क्स, लेनिन ने अनेक विकास के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिसका पूरे विश्व ने खुले दिल से स्वागत किया एवं विकास की नई नई की इबारत लिखी हैl
दूसरी ओर भारत की संस्कृति, सभ्यता और समाज में सदैव आवश्यक सुधार तथा नई नई बुद्धिमता पूर्ण युक्तियों को अपने में आत्मसात करने की एक अलग क्षमता रही है, और विकास का मूल मंत्र भी परिवर्तनशील जीवनशैली ही है l राजनीति तो सदैव परिवर्तन पर अवलंबित रहती है। स्वतंत्रता के पहले तथा बाद में राजनीतिक घटनाक्रम जिस नव परिवर्तन युग की तरफ अग्रसर हुए हैं वह अत्यंत उल्लेखनीय हैl भारतीय सभ्यता समाज और संस्कृति जितनी जटिल तथा गूढ है उसको जितना समझा जाए, उसका जितना अध्ययन किया जाए तो उससे नवीन बातें समझ में आती है, और उसके नए नए अर्थ हमारे सामने आते हैं, जिसका बहु आयामी उपयोग हम अपनी जीवनशैली में परिवर्तन करने के लिए सदैव कर सकते हैं। स्वतंत्रता के बाद तो भारत देश ने ज्ञान भाषा तथा संस्कृति में अनेक परिवर्तन किए गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस आदि ने अपनी किताबों में नव परिवर्तन के नए-नए आयामों तथा जीवन शैली के सत्य के साथ प्रयोग को एक नया आयाम दिया है और भारत देश को नए स्वरूप में विश्व में पहचान दिलाई है। पाश्चात्य ज्ञान से हमें अपने आडंबर एवं अंधविश्वास तथा शिक्षा पर विजय प्राप्त करने में काफी मदद प्राप्त हुई है। भारतीय संस्कृति की कई भ्रांतियों को भी हमने ज्ञान तथा भाषा के नवीन प्रयोगो से समाज से दूर किया है।
दिन प्रतिदिन जीवन की कार्यशैली में हम यह महसूस करते हैं कि शिक्षा भाषा तथा ज्ञान हमें यह महसूस कर आते हैं कि हम अभी तक कितने पीछे हैं एवं हमें कितने ज्ञान की और आवश्यकता है। हालांकि ज्ञान का कोई और झोर नहीं होता, ज्ञान तथा भाषा एक समृद्ध भंडार है, उसमें आप जितना सीख सकते हैं ज्ञान ले सकते हैं वह अत्यंत लघु होता है। तो हमेशा हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम पल प्रतिपल कुछ ना कुछ हर व्यक्ति, हर समाज, हर सभ्यता से सीखने का प्रयास करें ,क्योंकि ज्ञान भाषा एवं संस्कृति हमें सदैव समृद्ध विकासशील एवं परिवर्तनशील बनाती है और परिवर्तनशील जीवन ही एक नई ऊर्जा, आशा और विकास को जन्म देती है। संजीव ठाकुर, चिंतक, लेखक, रायपुर छत्तीसगढ़,