भैया मान लो कि बसंत आ गया है । अब बसंत तो ऐसे ही आता है । आप को मानना है तो मानो और नहीं मानना तो मन मत मानो । बसंत कोई राजनैतिक दल की तरह तो है नहीं कि झंडा-बैनर लगाकर बताये कि देखो मैं आ गया और न ही आन्दोलकारी है कि ‘नारे लगाकर चिल्लाये ‘‘हर जोर जुल्म की टक्क्र में संघर्ष हमारा नारा है’’ वैसे भी ये नारे तो पुराने जमाने के हो गए हैं अब तो नए नारे नई भाषा शैली के साथ प्रस्तुत किए जाने लगे हैं । पर बसंत आ गया है । कैलेण्डरों में लिखा है कि बसंत आ गया है तो समझ लो आ गया है । प्रकृति की ओर मत देखो यदि ऐसा पहले ही देख लिया होता तो उत्तराखंड़ का हादसा नहीं होता । पल भर में कैसे भूचाल आ जाता है और सैकड़ों बेशकीमती जानें कलकवलित हो जाती हैं । उस सैलाब में जो जन हानि हुई उस पर तो चिन्तन कर ही लेना चाहिए । काश की हमने प्रकृति को बसंत आने की बहार जैसी हालत में छोड़ा होता । ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों को हमने प्रकृति के सौन्दर्य की तराजू पर ही तौला होता तब शायद प्रकृति बसंत के मौसम में रौद्र रूप न दिखाती । जीवन देने वाली प्रकृत जीवन नहीं छीनती पर हमने कभी नहीं सोचा । विकास को विनाश की शर्त पर स्वीकार किया है और करते भी जा रहे हैं । भयानक दुघर्टना अचानक आने वाला सैलाब यूं ही पल भर में भले ही आता दिखाई दिया हो पर उसके आने की मंजिल तो हमने पहले ही तय कर दी थी । उत्तराखंड की देव भूमि पर बसंत नहीं आया विनाश आया और भी आ सकता है के संकेत भी मिल रहे हैं । सोचना तो पड़ेगा हमें हर बार जब भी हम विकास की बात करेगें तब ही उत्तराखंड की इस त्रासदी को ध्यान में रखकर विकास की योजनाओं को बनाना पड़ेगा । पर बसंत तो आ चुका है । पेड़ों से पत्ते झरने लगे हैं, आम पर बौर आना प्रारंभ हो गया है । पर लग नहीं रहा तो न लगने दो । और यदि वाकई बसंत देखना है तो उस ओर देखो जहां बसंत बगर रहा है । पश्चिम बंगाल में चारों ओर बसंत बिखरा पड़ा है और जो बसंत शेष रह गया वह दिल्ली की बार्डरों पर उदास चेहरा लिए खड़ा है । दिल्ली की बार्डरों में तो हमंत ऋतु की सर्दीली हवायें भी गुजर चकी हैं और अब बासंती हवायें बह रही हैं हो सकता है कि यहां फाल्गुनी हवायें भी ऐसे ही बहती रहें और मई की गर्म हवाओं के थपेड़े भी अपना रंग दिखाकर थक जायें । आन्दोलन है, पर कब तक ? अब तो यह प्रश्न चारों ओर प्रतिध्वनि बन गूंज रहा है । कोई तो हल निकलना चाहिए । यह तो सच है कि दिल्ली की बार्डरों पर बैठे लोग अन्नदाता हैं पर सच यह भी है कि सचिवालय में बैठे लोग भी तो हमें कुछ न कुछ देते ही हैं । एक देश के लिये, एक समाज के लिए, एक व्यक्ति के लिए सारा कुछ चाहिए होता है अन्न भी और बाकी वस्तु भी, याने सारी चीजों को पाकर ही वह पूर्ण होता है केवल अन्न से ही नहीं । सोचना होगा कि हम सड़कों पर बैठे इन किसानों को कैसे राजी करें कि वो आन्दोलन को खत्म कर दें । लोकतंत्र है तो आन्दोलन का अधिकार तो है जो वे कर रहे हैं पर समझौता भी तभी होता है जब दोनों एक-एक कदम पीछे हटने की मानसिकता बना लें । यदि ऐसा हो पाया तो दिल्ली की सड़के फिर से आजाद और आबाद हो ही जायेगीं । पश्चिम बंगाल में बसंत ने धमाचैकड़ी मचाई हुई है । एक आ रहा है और दो जा रहे हैं, वैसे आ कोई नहीं रहा है सारे जा ही रहे हैं, अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर । अब उन्हें चुनाव के ठीक पहिले सुनाई दे रही है अपनी अन्तरात्मा की आवाज । पश्चिम बंगाल में बसंत तो सर्दियों के मौसम में ही आ गया था । भाजपा पिछले पांच सालों से वहां की जमीन तैयार कर रही थी फिर उसमें जो कुछ पैदा करना था उसे बो दिया अब समय आ गया है कि वे जो पैदा होने वाला है उसकी फसल काट लें । किसान भले ही दिल्ली की बार्डरों पर बैठकर इंतजार कर रहे हो अपने मांगों के पूरा होने का पर पश्चिम बंगाल में भाजपा को महसूस होने लगा है कि उनका इंतजार खत्म होने लगा है । बसंत घुमड़-घुमड़ कर वहां धूम मचा रहा है । भाजपा की बासंती बयारें चारों ओर बासंती माहौल बना रही हैं उनके कार्यकर्ताओं के चेहरे पर मुस्कान है । यह मुस्कान ही तो बसंत के आगमन का द्योतक होती है । मुश्किल यह है कि ऐसी मुस्कान हर चेहरे पर होनी चाहिए वो नहीं दिखाई दे पा रही है । बंसत के पूर्व बजट भी तो आया है कुछ चेहरों पर उसकी मुस्कान होनी चाहिए पर अभी तक उतने बेहतर ढंग से दिखाई नहीं दी । हर चेहरे पर मुस्कान अब कल्पनाओं के हवाले हो चुकी है । रेत के महलों का जीवन ज्यादा नहीं होता ठीक ऐसे ही मुस्कानों का जीवन भी लम्बा नहीं होता । पल भर में चेहरे पर आई मुस्कान गायब हो जाती है । बाजार जाते ही लगता है कि बसंत नहीं होली आ गई है,, बाजार में दामों में कमी तो आ ही नहीं रही है । आम आदमी दो किलोमीटर भी वाहन से जाता है तो उसके सौ रूपये निपट जाते हैं । रूपये निपटने का यही सिलसिला बाजार में भी दिखाई देता है ‘‘प्याज’’ से लेकर ‘‘प्यार’’ के बुके तक महंगे हो चुके हैं । वेलेन्टाइन डे पर किसी को बुके देना भी महंगा साबित हो रहा है । फिर क्या करें….गुलाब के बुके न सही गेंदा के फूलों के बुकों से काम चला लो । पर घर में बगैर प्याज के तो सब्जी नहीं बनाई जा सकती । दाल महंगी, आटा महंगा और मिर्च मसाला तक महंगा सब कुछ महंगा फिर भला काहे का बसंत । हमारे चेहरे का रंग तो वैसे ही उड़ा हुआ है । उसमें न तो लाल रंग दिखाई देता है और न ही बासंती रंग । चेहरा पीला पड़ चुका है । पेड़ों के पत्ते जरूर झर रहे हैं ये तो अच्छा है कि अब पेड़ कम है इसलिए कचरा कम हो रहा है । वैसे भी अब कचरे को बाहर फेंकने ही कहां दिया जाता है गाना बजाती कचरे की गाड़ी आती है उसमें रखना पड़ता है । यह काम अलग से बढ़ गया है । अब जो भी हो हम तो मान ही लेते हैं कि बसंत आ गया है । सभी को बसंत की बहुत बहुत बधाई ।