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नारी आन्दोलन की पथ प्रदर्शक कमलादेवी चट्टोपाध्याय

(03 अप्रैल, 1903 से 29 अक्टूबर, 1988)

प्रारम्भिक जीवन :-

कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म 03 अप्रैल, 1903 को मैंगलोर (कर्नाटक) के एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी पुत्री थीं। इनके पिता श्री अनंथाया धारेश्वर मंगलोर के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर थे। इनकी माँ श्रीमती गिरिजाबाई अच्छी पढ़ी-लिखी, संस्कारी और निर्भीक महिला थीं, जो कर्नाटक के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती थीं। इनकी दादी स्वयं प्राचीन भारतीय दर्शन की बहुत अच्छी जानकार थीं। इस प्रकार के वातावरण में परवरिश होने के परिणाम स्वरूप ये स्वयं भी तर्कशील और स्वावलंबी थीं, जो उनके जीवन में आगे चलकर काम आया। इन्होंने पहले मंगलोर तथा बाद में दूसरी शादी के बाद लन्दन यूनिवर्सिटी के बेडफ़ोर्ड कॉलेज से समाजशास्त्र में डिप्लोमा प्राप्त किया। इन्होंने प्राचीन भारतीय पारम्परिक संस्कृत ड्रामा कुटीयाअट्टम (केरल) का गहन अध्ययन भी किया था।

कमलादेवी जब 7 वर्ष की थी तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। ये बाल विवाह का शिकार हुईं और इनकी पहली शादी अत्यन्त छोटी उम्र यानि 12 वर्ष की अवस्था में कृष्णा राव के साथ सन् 1917 में हुई। परन्तु दुर्भाग्यवश दो वर्षों के अंदर ही कृष्णा राव की सन् 1919 में मृत्यु हो गयी तथा अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही ये विधवा हो गईं। बाद में अपनी पसन्द से सन् 1919 में ही सरोजिनी नायडू के छोटे भाई हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ पुन: विवाह के बंधन में बंध गईं। हालांकि जात-पात में विश्वास रखने वाले उनके रिश्तेदारों ने इसका घोर विरोध किया। शादी के कुछ दिनों बाद कमलादेवी हरेन्द्रनाथ के साथ लन्दन चली गयीं। हरेन्द्रनाथ भी कला, संगीत, कविता और साहित्य में रूचि रखने वाले व्यक्ति थे। लेकिन दोनों की विचारधाराओं में मेल नहीं होने के कारण यह संबंध अधिक समय तक नहीं चला और इसकी परिणति तलाक के रूप में हुई। इन्होने  एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रामकृष्ण चट्टोपाध्याय था।

समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी :-

कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, नारी आन्दोलन की पथ प्रदर्शक तथा भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नव-जागरण लाने वाली गांधीवादी महिला थीं। ये एक सामाजिक कार्यकर्ता, कला और साहित्य की समर्थक भी थीं। जिंदगी की तन्हाई और महात्मा गांधी के आह्वान के चलते वे राष्ट्र सेवा से जुड़ गईं थीं। देश के हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र को एकीकृत करने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान देने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय को महात्मा गांधी बहुत मानते थे और इस निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी को उन दिनों गांधी जी ने ‘सुप्रीम रोमांटिक हिरोइन’ का खिताब दिया था। कमलादेवी ब्राह्मण होते हुए भी समाजवादी थीं, बालिका वधू होते हुये भी ये स्त्री अधिकारवादी थीं। ये एक ऐसी राजनेता थीं, जिन्हें कुर्सी की दरकार नहीं थी। राष्ट्रभक्ति का जज्बा ऐसा था कि आजादी के बाद इन्होंने सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। देश के विभाजन के बाद उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास में अपने आप को लगा दिया। वो गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरोजनी नायडू तथा कस्तूरबा गांधी से बहुत प्रभावित थीं। जब ये लन्दन में थीं तभी से महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से सन् 1923 में जुड़ गईं और भारत लौट आईं। यहां आकर ये सेवादल तथा गांधीवादी संगठनों में अपना योगदान देने लगीं।

नारी आन्दोलन की पथ प्रदर्शक :-

प्रकृति प्रेमी कमला देवी ने ‘ऑल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस’ की स्थापना की। ये बहुत दिलेर थीं और पहली ऐसी भारतीय महिला थीं, जिन्होंने 1920 के दशक में खुले राजनीतिक चुनाव में खड़े होने का साहस जुटाया था, वह भी ऐसे समय में जब बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को आजादी शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम था। 1927-28 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की सदस्य बनीं और बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून, सहमति की उम्र क़ानून के साथ-साथ रजवाड़ों के भीतर आंदोलन पर कांग्रेस की नीति तय करने में अहम भूमिका अदा की।

 ये गांधी जी के ‘नमक आंदोलन’ (सन् 1930) और ‘असहयोग आंदोलन’ में हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से एक थीं। नमक कानून तोड़ने के मामले में बांबे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होने वाली वे पहली महिला थीं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे चार बार जेल गईं और पांच साल तक जेल में रहीं।

हस्तशिल्प एवं हथकरघा कला के विकास में योगदान :-

कमला देवी ने देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरी समृद्ध हस्तशिल्प तथा हथकरघा कलाओं की खोज की दिशा में अद्भुत एवं सराहनीय कार्य किया। कमला चट्टोपाध्याय पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने हथकरघा और हस्तशिल्प को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। आजादी के बाद इन्हें सन् 1952 में ‘आल इंडिया हेंडीक्राफ्ट’ का प्रमुख नियुक्त किया गया। ग्रामीण इलाकों में इन्होंने घूम-घूम कर एक पारखी की तरह हस्तशिल्प और हथकरघा कलाओं का संग्रह किया। इन्होंने देश के बुनकरों के लिए जिस शिद्दत के साथ काम किया, उसका असर यह था कि जब ये गांवों में जाती थीं, तो हस्तशिल्पी, बुनकर, जुलाहे, सुनार अपने सिर से पगड़ी उतार कर इनके कदमों में रख देते थे। इसी समुदाय ने इनके अथक और निःस्वार्थ माँ के समान सेवा की भावना से प्रेरित होकर इनको ‘हथकरघा मां’ का नाम दिया था।

सांस्कृतिक और आर्थिक संस्थानों की स्थापना में योगदान :-

भारत में आज अनेक प्रमुख सांस्कृतिक संस्थान इनकी दूरदृष्टि और पक्के इरादे के परिणाम हैं। जिनमें प्रमुख हैं- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, संगीत नाटक अकेडमी, सेन्ट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज एम्पोरियम और क्राफ्ट कौंसिल ऑफ इंडिया। इन्होंने हस्तशिल्प और को-ओपरेटिव आंदोलनों को बढ़ावा देकर भारतीय जनता को सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित करने में अपना अहम योगदान दिया। हालांकि इन कार्यों को करते समय इन्हें आजादी से पहले और बाद में सरकार से भी संघर्ष करना पड़ा।

पुस्तकें, पुरस्कार एवं सम्मान :-

कमलादेवी ने ‘द अवेकिंग ऑफ इंडियन वोमेन’ सन् 1939, ‘जापान इट्स विकनेस एंड स्ट्रेन्थ’ सन् 1943, ‘अंकल सैम एम्पायर’ सन् 1944, ‘इन वार-टॉर्न चाइना’ वर्ष 1944 और ‘टुवर्ड्स ए नेशनल थिएटर’ नामक पुस्तकें भी लिखीं, जो बहुत चर्चित रहीं।

समाज सेवा के लिए भारत सरकार ने इन्हें सन् 1955 में नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से और सन 1987 में दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। सन् 1966 में कमलादेवी को सामुदायिक नेतृत्व के लिए ‘रेमन मैग्सेसे’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। संगीत नाटक अकादमी ने इन्हें ‘फेलोशिप और रत्न सदस्य’ से सम्मानित किया। संगीत नाटक अकादमी द्वारा ही सन् 1974 में इन्हें ‘लाइफटाइम अचिवेमेंट’ पुरस्कार भी प्रदान किया गया। सन् 1977 में यूनेस्को ने इन्हें हेंडीक्राफ्ट को बढ़ावा देने के लिए सम्मानित किया। शान्ति निकेतन ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘देसिकोट्टम’ से इनको सम्मानित किया। 29 अक्टूबर, 1988 को इनका निधन हो गया।

महत्वपूर्ण घटनाक्रम :-

1903 : 03 अप्रैल को मैंगलोर, कर्नाटक में जन्म

1923 : लन्दन में रहते हुए महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ी

1955 : पद्म भूषण’ से सम्मानित

1987 : ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित

1966 : ‘रेमन मैग्सेसे’ पुरस्कार से सम्मानित

1988 : 29 अक्टूबर को निधन

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