कोरोना जैसी भयंकर महामारी ने स्वास्थ्य सेवाओं की कलई खोल दी है । पुराने और बिल्कुल जर्जर स्थिति में पहुंच चुकी सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं निरीह और बेबस नजर आ रही । प्राइवेट चिकित्सालय चुप्पी साध चुके है । सुनने में तो यहां तक आ रहा कि प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों को भर्ती तक लेने से इंकार किया है । राज्य में केवल एक ही शोर एक ही आवाज सुनाई दे रही , आक्सीजन दो , बेड दो ! आखिर आक्सीजन मिल भी जाए तो कहां से आएगा इतनी बड़ी मात्रा में अस्पताल डॉक्टर और बेड ? राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार तक के नुमाइंदे साल भर से मौजूद खतरे को नज़रंदाज़ कर मस्त पड़े थे। जब कोरोना ने पूरे देश में हाहाकार मचाया, तब भी इसको झूठलाने, घटाकर बताने में चाटुकार मंडलियां जुटी रहीं, लेकिन सोशल मीडिया के संवेदनशील यूजर्स ने सच को दबाने की सारी कोशिशें नाकाम कर दीं। जब किसी की मौत हो रही हो और दूसरा निर्लज्जता के साथ उसे समझा रहा हो कि दो फीसदी ही तो मर रहे हैं, 98 फीसदी तो देखो ठीक हो रहे हैं तो यकीन मानिए, मरने वाले के घर वालों पर क्या बित रही होगी ये सोच कर तन सिहर उठता है । मरहम न हो आपके पास तो मौन रहिए, ज़ख्मों पर नमक मत छिड़किए। ये आम लोग हैं, जिनमें से कोई किसी अपने के लिए अस्पताल में बिस्तर दिला देने की गुहार लगा रहा है, कोई सिलेंडर दिलाने में मदद मांग रहा है, कोई किसी के हमेशा के लिए खो देने का दर्द साझा कर रहा है तो उधर मंत्री जी कह रहे दो लगेगा चुप हो जाओगे । इन सबके सोशल मीडिया प्रोफाइल हैं, इन सबके घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार हैं, इन्हें राजनीति नहीं करनी है बल्कि ये तो उस ठप सिस्टम के शिकार हैं, जो राजनीति की देन है।
क्यों बन गए ऐसे हालात, ये सवाल उठाना ज़रूरी है। क्या हुआ जो चंद महीने पहले तक कोरोना पर विजय की हुंकार एक दिन में सबसे ज्यादा कोरोना केस का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनने में बदल गई? कौन है इस स्थिति का जिम्मेदार? अकेले नरेन्द्र मोदी पर सारी जिम्मेदारियां नहीं थोपी जा सकतीं, राज्य सरकारों ने क्या किया, विमर्श इस पर भी होना चाहिए। ये सच है कि केंद्र सरकार का पूरा फोकस चुनावों पर रहा, खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चुनावी रैलियों में लगातार व्यस्त रहे। पहले बड़ी बात मानी जाती थी पीएम की रैली, अब तो निगम पार्षद चुनाव तक में हो रही हैं। स्वास्थ्य मंत्री खुद डॉक्टर हैं, लेकिन उन्होंने कितने अस्पतालों का दौरा किया और इनमें से औचक दौरा कितने रहे, ये आंकड़ा अगर वो खुद शेयर करते तो सरकारी अस्पतालों में इतने भर से फर्क दिखने लगता। आम लोगों की बात करें तो आपने भी महसूस किया होगा कि ज्यादातर लोग ये कहते हैं कि नितिन गडकरी के काम को छोड़ दें तो चुनाव के अलावा देश में कुछ हो भी रहा है, ऐसा नहीं लगता। बावजूद इसके कोरोना से जो हालात बने हैं क्या उसके लिए सिर्फ केंद्र जिम्मेदार है? मेरा जवाब है नहीं।
स्वास्थ्य सेवाएं राज्यों का विषय है और कोई भी राज्य अपनी जिम्मेदारी केंद्र पर थोप कर इससे बच नहीं सकता। महाराष्ट्र में कोरोनाकाल के पूरे एक साल में सरकार ने क्या और कैसी तैयारी की है कि हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं? क्या ओडिशा जैसे राज्य ने कोई स्पेशल इम्युनिटी सिस्टम प्लांट कर रखा है, जहां बेहतर स्थिति है और लगातार दूसरे साल कई राज्यों से अच्छी व्यवस्था दिख रही है? पूरे साल सिर्फ सरकार बचाने की राजनीति में गुज़री है महाराष्ट्र में और जितनी ऊर्जा इस पर लगाई गई, उतनी कोरोना नियंत्रण पर लगाई गई होती तो इतनी मौतें न होतीं, इतने परिवार न उजड़ते। दोष महाराष्ट्र की सत्तारुढ़ पार्टियों के साथ-साथ विपक्षी दलों का भी है, जिन्हें कोरोना पर लेकर दबाव बनाना था, लेकिन जो हाई-प्रोफाइल चुनिंदा लोगों तक खुद की राजनीति सीमित करके बैठे थे। और दिल्ली में क्या हो रहा है? क्या तैयारी की गई पूरे साल कि अब केजरीवाल फिर से बिस्तर बढ़ाने और ऑक्सीज़न दिलाने की गुहार लगा रहे हैं? विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये फूंकने की बजाय ऑक्सीज़न प्लांट लगाते, दिल्ली सरकार के अस्पताल अपग्रेड करते। राज्यों की सोच भी तो यही रही कि कोरोना खुद आया है और पीक पर पहुंचने के बाद खुद डाउन हो जाएगा तो हमें क्या करना है? ऐसे नहीं चलता काम जनाब। छत्तीसगढ़ में पिछले साल हालात बेहतर थे, तो इस बार क्रिकेट टूर्नामेंट करा के कोरोना को दावत दे दी गई, नतीजा सामने है। बिहार में सबसे पहले टीका लगाने का वादा था और मौजूदा स्थिति ये है कि आरटी-पीसीआर के लिए किट तक नहीं हैं। यकीन न हो तो बुक कराने की कोशिश करके देख लीजिए, तीन-चार दिन बाद जांच होगी, उसके तीन-चार दिन बाद रिपोर्ट आएगी और जब तक पता चलेगा कि पेशेंट पॉजिटिव है, तब तक पेशेंट के घरवाले अस्पताल और सिलेंडर के लिए चक्कर लगाते फिरेंगे। ये तो स्थिति है राज्यों की, हर जगह की, कहीं थोड़ा ठीक तो कहीं ज्यादा खराब, लेकिन कहीं भी कोई भी राज्य ऐसा नहीं, जहां के लोग कह सकें कि हमारे यहां तो भैया बढ़िया इंतजाम किया है सरकार ने। संविधान में जो संघीय ढांचा के बारे में हमने सुना है, वो कहां गुम हो गया है आखिर? मैंने पिछली बार की कोरोना लहर में भी कहा था और फिर दोहरा रहा हूं कि मौजूदा हालात के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय यानी तालमेल नहीं होना। जिस तरह पूरा देश मोदी समर्थक और मोदी विरोधी के विपरीत ध्रुवों में बंटकर हर विषय को देखने का आदी बन चुका है, वैसे ही केंद्र और राज्य एक-दूसरे से जुड़े नहीं, बल्कि एक-दूसरे के विपरीत नज़र आते हैं खासकर जहां डबल इंजन सरकार नहीं है। ये भयावह है कि जब हालात नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं तभी केंद्र और राज्य एक मंच पर दिखते हैं और वहां भी गंभीरता कम, कोरम पूरा करने का बॉडी लैंग्वेज़ दिखता है, हाल ही में देखा भी है लोगों ने।
राजनीतिक पार्टियों, नेताओं और इनके समर्थक-विरोधियों को ये समझने की ज़रूरत है कि जनता चाहे किसी को भी राज्य में चुने और किसी को भी केंद्र में, इससे तंत्र पर फर्क नहीं पड़ना चाहिए, हर भारतीय को समान अधिकार ही हैं। सरकारें कोई जेब से खैरात नहीं बांटा करतीं, बल्कि जो जनता से लेती है, उसी का प्रबंधन कर जनता को लौटाती हैं, इसलिए फलां ने ये सौगात दे दी और फलां ने वो कर दिया जैसे राग अलापना बंद करके संघीय ढांचे की भावना के मुताबिक मिलकर काम करें वर्ना तू-तू, मैं-मैं की राजनीति में ऐसे ही लोग मारे जाते रहेंगे, जैसे इस वक्त मर रहे हैं।जिम्मेदार हम और आप यानी जनता भी कम नहीं हैं। किसने कहा था कि नेताओं की रैलियों को देखकर, कुंभ स्नान को देखकर, किसानों के आंदोलन को देखकर, शराबियों की ठेकों पर लाइन को देखकर कोरोना की विदाई का जश्न मनाने को? कई जगह तो मास्क न लगाने वाले ही उल्टे मास्क लगाने वालों को इस नज़र से देखते हैं मानो कोरोना मुक्त माहौल में कोई कोरोना पेशेंट आ गया हो। किसी की ठोढ़ी पर लटका होता है मास्क तो किसी की गर्दन पर, कोई इसे होंठ ढ़कने का सामान समझ रहा होता है और नाक खुला छोड़ देता है तो किसी को मास्क से मोबाइल पर बात करने में असुविधा होने लगती है। अभी समय है सचेत होकर रहिए , आने वाले समय में खुद को स्थापित करने के अवसर मिलेंगे पर अभी तो फिलहाल घरों में रहिए ।
— पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत,जौनपुर