कविता मल्होत्रा
करोना काल ने ये तो साबित कर ही दिया कि शिक्षा सिर्फ़ पुस्तकों से सीखना और तथ्यों को कंठस्थ करना मात्र नहीं है।बल्कि प्रकृति के हर क़दम का अवलोकन करने की सतत प्रकिया है, जिसमें जीवन का सार छिपा है।हर मौसम,पत्तों के झड़ने,उगने बहार और इंतज़ार के सहज स्वीकार करने की क्रियाएँ सिखाता है।प्रकृति का सबसे बड़ा संदेश है बिना भेदभाव के सृष्टि के हर जीव का आदर-सत्कार और बिना किसी अपेक्षा के सबका समभाव से पालन-पोषण।एक दूसरे की सहभागिता के बग़ैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।चाहे परिवार हो चाहे व्यापार हो, संगी साथियों के बिना तो इन दोनों का कोई अस्तित्व ही नहीं हो सकता।गगन का चाँद भी सितारों की संगत के साथ ही ख़ूबसूरत लगता है।फिर ऐसा क्या है जो हर किसी को बंधन मुक्त होने के लिए उकसा रहा है? सृष्टि के सृजनकर्ता ने समूचे ब्रह्मांड को अपने ही अँश से सृजा है, लेकिन उसके अपने ही अँश ने अपने ही स्वार्थों के चलते परस्पर ईर्ष्या-द्वेष की भावना से सृजनशक्ति को ही शर्मिंदा कर दिया है।
“जिसने कुँआ खोदा उसी की आत्मा पानी को तरसे”
मुंशी प्रेमचंद जी ने कितनी ख़ूबसूरती से मनुष्य के स्वार्थ की मानसिकता को बयान किया था।यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो आजकल न तो कोई उन्हें पढ़ने की आदत डालना चाहता है और न ही मातृभाषा को अपना कर गौरवान्वित महसूस करता है।जिसे देखो पश्चिमी सभ्यता का अँधानुकण करते हुए एक दूसरे से एक निश्चित दूरी क़ायम रखना चाहता है।आख़िर ऐसा क्या हो गया है जिसके फलस्वरूप वासुदेव कुटुँब की आधारशिला पर आधारित
भारतीय सभ्यता को पश्चिमी पंख लग गए हैं, जिनकी उड़ान भी स्वतंत्रता की परिचायक है और गंतव्य भी फूहड़ता का प्रतीक।
रशिया का यूक्रेन पर हमला हो या कोई भी सरहदी युद्ध, सत्ता पर क़ाबिज़ होने की लालसा स्पष्ट दिखाई देती है।लगभग दो साल से बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं तो क्या उन्हें अगली कक्षाओं में प्रोन्नति नहीं मिली? या उनके ज्ञानवर्धन में कोई कसर छोड़ी गई? सबकुछ बहुत बढ़िया तरीक़े से संपूर्ण हुआ। लेकिन ज्ञान के दान को भी आजकल व्यापारिक केंद्र बना कर आम आदमी की जेबें ख़ाली करने का माध्यम बनाने वाले धन लोलुप शिक्षण संस्थान कटघरे में खड़े हैं, जो कभी स्कूली वर्दी के नाम पर तो कभी बिल्डिंग फंड के नाम पर अभिभावकों का खून चूसने पर उतारू हो जाते हैं।अभी अठारह वर्ष की आयु से नीचे वाले बच्चों के लिए वैक्सीन का प्रबंध भी पूरा नहीं हुआ है और सभी स्कूल खोलने की अनुमति पारित कर दी गई है।स्कूल प्रबंधकों को अपनी कमाई से मतलब है और सत्तासीनों की आम जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है।यहाँ भी कुछ अपवाद छोड दिए जाएँ तो कुछ अभिभावक भी कटघरे में हैं जो मॉल घूमने को तो हमेशा तैयार रहते हैं और विवाह समारोहों में भी जमकर शामिल होते रहे हैं, लेकिन अब स्कूल भेजने के नाम पर वातावरण में वायरस की शिकायत कर रहे हैं।दिशा कोई भी हो लेकिन अपनी संस्कृति के हनन की दशा सुधारने की ओर कदम बढ़ाना बहुत ज़रूरी है।
डिजिटल होते इंडिया ने करोना काल में घर पर बैठ कर भी
सब काम भली भाँति सँभाले। न तो पढ़ाई में कोई व्यवधान आया न ही किसी संस्था का कोई काम रूका।
रूके तो केवल मानवता की ओर बढ़ते कदम क्यूँकि कुछ अपवादों को छोड़कर आम आदमी से रोज़गार छीन लिए गए, व्यापारिक क्षेत्रों में माँग और पूर्ति के नियमों का असर किसी से छिपा नहीं रहा। कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई।
शैशव पिंजरे में रोबोटिक कायदे पढ़ने लगा, किशोर और युवा वर्ग हवाई तरँगों की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, प्रौढ़ वर्ग मन माफ़िक़ अध्याय गढने लगा और वृद्धावस्था की ओर बढ़ता वर्ग सांस्कृतिक विरासत में दीमक का दोषारोपण मढ़ने लगा।
हालात बेहद गंभीर है
और चिंतन को अधीर है
जिसने रचा सृष्टि को
उसी के नयनों में नीर है
क़लम के रास्ते
निकलने को बेताब
जन मानस की पीर है