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वर्तमान परिपेक्ष्य में साहित्यकारों की भूमिका

अक्षत श्रीवास्तव

हम यथार्थवादी युग में प्रवेश कर चुके हैं । कल्पनाओं में अब हम नहीं जी सकते । सभी को हकीकत का दर्शन चाहिये । हम कल्पनाओं में नहीं जी सकते । हमारी कल्पनायें भी बेरंग हो चुकी हैं । हमें यथार्थ ही चाहिए । यथार्थ याने कड़वी दवा जिसके मीठेपन में भी कसैलापन होता है । अंगारे जैसे दहकने वाले टेसू अब केवल लाल रंग के पुष्प होकर रह गए हैं । गुलाब के साथ कांटों के अस्त्तिव की बात होने लगी है । कांक्रींट की मरू भूमि में पल्लवित पुष्प केवल नागफनी के ही महसूस किये जाने लगे हैं । घरों के आंगन की माटी तक गुम हो चुकी है । चिड़िया माटी की महक से आकर्षित होकर फुदकती थी आंगन में । उसका कलरव अजीब से उल्लास से भर देता था । देहरी पर अल्पना और सूरज की मंद किरणों का उल्लास ही दिनचर्या का भाग होता था । तुलसी के पौधे का दीपक देर तक फैलाता रहता था उजियारा, बिजली के बल्व से ज्यादा खुबसूरत होता था उसका प्रकाश ।  पर अब यह यथार्थ नहीं रहा है । खिड़की के कांच के ऊपर भी परदा टांग दिया जाता है ताकि रोशनी न आ पाए । हम सूरज की तेज किरणों से भयभीत होने लगे हैं । रेशमी परदे से बाहर झांकता दिख रहा है यथार्थ । संवेदनायें गुम हो गई हैं और वेदना शाब्दिक होकर रह गई है । हमारा मस्तिष्क पड़ोस में हुई मौत में ‘‘अब अंतिम यात्रा में जाना पड़ेगा’’ के भावों के साथ जीने लगा है । पड़ोस के दुख में सहभागी होने से बचने लगा है ।  साहित्यकार का मन तो कोमल होता है उसके पास कोमलता को मापने का यंत्र होता है ऐसा मान लिया गया है । जब भी कुछ माना जाता है तो दायित्वों के निर्वहन का बोझ महसूस होने लगता है । यथार्थवाद की शिला पर महकते फूलों को चित्रित किया जाना कठिन तप है । साहित्यकार विचारशील व्यक्ति होता है । हमारे अंतर्मन में उठ रहे विचारों की श्रृंखला असीम गहराई तल में कुरूक्षेत्र के युद्ध में परिवर्तित हो जाती है । विचार आपस में द्वन्द कर रहे हैं यथार्थ और कल्पनाओं के साथ । वह यथार्थ को कल्पनाओं में पिरोकर माणिक्य माला बनाना चाहता है पर अंतस के ही किसी कोने में कोई आकर अपना विराट स्वरूप ग्रहण क्र लेता है लगता है जैसे कृष्ण के रूप में हमारा ही मन हमें ही गीता का ज्ञान देने लगा हो । साहित्यकार का लेखन तो ‘‘स्वान्ताय सुखाय’’ के पथ का अनुसरण करता है । वह भी तो उसी समाज का ही एक अंग है जिसमें शोषक और शोषित रहते हैं, जिसमें दुख और सुखों का बेमेल जोड़ा रहता है, जिसमें तथाकथित आनंद की बयार बहती है । एक साहित्यकार तो इन सभी से प्रभावित तो होगा ही । वह अपने सृजन में इसके प्रभाव को व्यक्त करता है तो उसका स्वान्ताय सुखाय सर्वजन प्रिय बन जाता है । हम कहते हैं कि आज पाठक साहित्य से दूर हो गया है वास्तविकता यह है कि हमने सर्वजन सुखाय का सृजन करना या तो बंद कर दिया है अथवा कम कर दिया है । मुंशी प्रेमचंद का साहित्य आज भी पाठकों को पसंद आ रहा है क्याोंकि उसमें यथार्थ का चित्रण हुआ है । एक दुखी मन बिहारी की नायिका के साथ तारतम्य नहीं बैठा सकता इसलिये वह उसे पढ़ना ही छोड़ देता है वह प्रेमचंद के होरी के साथ अपने वर्तमान और अपने अतीत को झांक लेता है तो उनका पाठक वर्ग बढ़ता जाता है । एक पाठक आम परेशानियों से जूझता हुआ साहित्य से रूबरू होने का प्रयास करता है । हमारा दायित्व अब बढ़ चुका है । साहित्यकार का दायित्व ठेकदारी प्रथा से नहीं जुड़ा यह उसकी अभिव्यिक्त की मजबूरी है । समाज साहित्यकार को इस उम्मीद के साथ देखता है मानो उसके पास उसके दुख या सुख की चाबी है । वह अपने साहित्य के माध्यम से समाज को दुःख से उबारने का प्रयत्न करता है और सुखी को आनंदित होने का अवसर प्रदान कर सकता है ।

                  वर्तमान दौर संक्रमण काल का दौर है । साहित्यकार भी इससे प्रभावित हो रहा है । उसके चिन्तन की बयार वर्तमान की प्रदूषित वायु से होकर गुजर रही है । उसके विचारों की श्रृंखला पाषाण से प्रतिस्पर्धा करती नहीं रह सकती ।  पाठक को चाहिए उसके जीवन का सच और साहित्यकार इस जीवन के सच को शब्दों में चित्रित करने का सामथ्र्य रखता है । उसके द्वारा अभिव्यक्त यह चित्रण उसे पाटक के समीप लेकर आता है । गद्य या पद्य अभिव्यक्ति का स्वरूप कोई भी हो उसे ईमानदार अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी को ग्रहण करना आज के दौर में सबसे अधिक आवश्यक है । संृजन तो भावों की झांकी है यदि अच्छे भाव होंगे तो झांकी का स्वरूप अच्छा होगा पहीं तो वह बदरंग हो ही जायेगी । एक अच्छा साहित्यकार अपने इस दायित्व को महसूस करता है । उसके अंतर्मन में उठ रहे विचारों का तूफान भले ही ज्वार-भाटा की शक्ल ले ले पर जब भी वह कागज-कलम पर आकार ग्रहण करता है तो वह बहुसंख्यक जिज्ञासुओं का प्रिय बन जाता है । उसकी यही अभिव्यक्ति कालजयी सृजन की परिधि में आ जाती है । लेखन फैसन के अनुरूप् नहीं होता । आज बहुत सारे ऐसे साहित्यकार भी समाज में गौरवांवित होने के लिए छटपटा रहे हैं जिनका उदय साहित्यकारों को समाज में मिल रहे वैशिष्ट सम्मान के चलते हुआ है । वे पूर्व डिजाइन किए गए साहित्य को शाब्दिक बदलाव के साथ सिर उठाकर प्रस्तुत कर साहित्यकार होने का गौरव पा लेना चाहते हैं । साहित्य फैशन के स्वरूप् में दीर्घजीवी नहीं हो सकती । जो ईमानदार साहित्यकार हैं वे साहित्य में बढ़ रही इस प्रवृति से आहत हैं । साहित्य स्वान्ताय सुखाय की यात्रा पर प्रस्तुत हुई अभिव्यक्ति है उसमें दीर्घजीवी होने का गुण हहै । आज के इस दौर में वास्तविक साहित्यकारों का दायित्व इस फैशन से संघर्ष करने का और बढ़ जाता है । यही फैशन ही तो पाठकों और साहित्य के प्रति दूरी बढ़ा रही है । कविता लिखना इतना सहज समझ लेते हैं कि अतुकांत कविताओं की बाड़ सी आ रही है पर उसमें भाव कहां है, तुक भले ही न हो पर भावों को तो होना ही चाहिए । लघुकथा का खतरनाक दौर भी इसमें शामिल होता जा रहा है । अनेक ऐसी लघुकथायें सामने से गुजरती हैं जिनका प्रारंभ और अंत संदेश देता परिलक्षित नहीं होता । कथाओं में तो एक प्रवाह चाहिये यह प्रवाह ही पाठकों को बांधता है, यह प्रवाह ही कथा से पाठक को जोड़ता है, उसका अंत सुखांत या दुखांत कुछ भी हो पर जब पाठक उसे पूरा पढ़ लेता है तब वह चिन्तन से होकर अवश्य गुजरता है । यही तो अभिव्यक्ति का मूल आधार होता है । लघु कथा में विवरण को कम किया जा सकता है पर भावों को तो अभिव्यक्त किया ही जाना होगा । लघुकथा पढ़ने के बाद भी पाठक के लिये चिन्तन के कुछ बिन्दु तो सामने आने ही चाहिये । पर इतना सब करने के बाद भी साहित्य पाठकों को तरस रहा है । साहित्य पाठक की संवेदनशीलता को जगाने के अपने मूल काम से दूर होता नजर आने लगा है । साहित्य यदि मनोरंजन है तो पथ प्रदर्शक भी, मार्गदर्शक भी, विचारों की क्रांति की मशाल भी और समाज में नई चेतना प्रस्फुटित करने वाली तलवार भी । हम जैसा उसे चलायेगें परिणाम वैसा ही मिलेगा पर सच तो यह है कि हम उसे चलाना ही भूल गए हें हम सृजन के आवंडर का लबादा ओढ़कर सम्मान पाने की अपनी अभिलाषा में साहित्य को प्रदूषित करते जा रहे हैं । यह अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आ सकता है । किसी भी सृजनशील व्यक्ति के लिए उसका अंतर्मन में आनंदातिरेक के भाव भी होते हैं और द्वन्द के भाव भी । सामाजिक कुरूतियों या विषमताओं की संघर्ष भी नजर आता है और अपने ही भविष्य का आकर्षक स्वरूप भी होता है । अभिव्यक्ति के लिए स्वंय का नाद सुनाई देता है और स्वंय का अंतर्मन धर्मराज बन जाता है जो आपको सच लिखने की प्ररेणा देता है, जो आपको आपके ही आनंद और सुखानूभूति की अभिव्यक्ति का मार्गदर्शक बन जाता है । यह आप पर निर्भर करता है कि अर्जुन की भांति लक्ष्य प्राप्ति का तरीका कौन सा चुनते हैं । कांक्रीट के जंगलों में गुम होती संवेदना को केवल महसूस कर लेने की सामथ्र्य भी आज के दौर की बहुत बड़ी उपलब्धी के रूप में रेखांकित की जा सकती है पर उस संवेदना को महसूस कर वेदनामुक्त बनाने की पहल करना और कठिन कार्य होता है । श्रृंगारिक शब्दों से न तो वेदना का अंत होता है और न ही संवदेना का । उसका अंत करने के लिए चाहिये एक दृढ़ संकल्प । यह दृढ संकल्प ही हमारी भावानुभूति बनकर जब सृजन के कुरूक्षेत्र में उतरती है तब पाठक का उसके साथ प्रवाह बनता है । यह प्रवाह ही कालजयी सृजन के रूप में दशकों तक अपनी आभा बिखेरता रहता है । शायद यहीं से वर्तमान के दौर में साहित्यकारों के सृजन का दायित्व प्रस्फुटित होता दिखाई देता है । हम वह लिखें जो आत्मिक सुखनूभूति दे, हम वह लिखें जो समाज को दिषा दे, हम वह लिखें जो जीवन की सार्थकता का बोध कराये । साथ ही जैसा लिखें वैसे जीने का प्रयास भी करें । हमारे विचार हमारे व्यक्तित्व में दृष्टित हों, शनैः-शनैः हमारे विचार, हमारी अभिव्यक्ति और हमारा व्यक्तित्व समस्वरूप् को ग्रहण कर लेगा और हम एक अच्छे साहित्यकार के रूप् में समाज के दर्पण में प्रतिबिम्बत होने लगेगें ।

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