अंततः कांग्रेस ने कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में अपनी जीत दर्ज करा ही ली । वैसे तो इसकी संभावना बहुत पहले से ही व्यक्त की जाती रही है । कर्नाटक की भाजपा सरकार जिन हाथों में थी वो न तो सत्ता को संभाल पा रहे थे और न ही आम मतदातओं की उम्मीदों पर खरा उतर पा रहे थे । अब मतदाता जागरूक हो चुका है, वह अपने अच्छे-बुरे के बारे में सोचने लगा है और जब वह सोचता ही तब ही सत्तारूढ़ दल को नुकसान उठाना पड़ता है । अब वे दिन नहीं रहे ज मतदाता आंखें मूंद कर अपनी वोट डाल आता था । कर्नाटक ऐसा राज्य है जिसमें सत्ता होने के अपने मायने हैं । यही कारण है कि भाजपा ने इन चुनावों के लिए मेहनत भी बहुत की, यहां तक प्रधानमंत्री जी ने लम्बी रैली निकालकर मतदाताओं को रिछाने का प्रयास भी किया, हो सकता है इससे फर्क भी पड़ा हो पर नतीजा तो कांग्रेस के पक्ष में ही गया । कर्नाटक की पूरी राजनीति पूर्व मुख्यमंत्री यदुरप्पा के इर्दगिर्द घूमती रही है, वे इस बार मुख्यमंत्र.ी नहीं हैं और न ही भविष्य में वे मुख्यमंत्री होंगें…तब कर्नाटक में कौन है जो भाजपा को बचा सकता है । चुनाव भले ही प्रधानमंत्री श्री मोदी जी की फोटो लगा कर लड़ लिया गया हो पर राज्य को चाहिए एक दमदार मुख्यमंत्री वो कौन है, वर्तमान मुख्यमंत्री तो फेल हो ही चुके हेंै, संभवतः कर्नाटक के मतदाताओं के सामने भी यह ही प्रश्न रहा होगा । कर्नाटक की अपनी निजी समस्यायें हें, वो राष्ट्रीय समस्रूाओं के झमेले नहीं पड़ सकता । राज्य की समस्यों कांग्रेस निपटा सकती है इस उम्मीद में वहां के मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट दिया । विगत चुनाव में जेडीएस को कांग्रेस ने मिलकर सत्ता हासिल की थी पर बाद में विधायकों ने पाला बदलकर भाजपा की सरकार बनवा दीे । याने पिछले चुनावों में भी समर्थन भाजपा के पास नहीं था और इस बार भी नहीं हैं बलात हासिल की गई सत्ता चली गई । कभी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा के लिए यह आघात माना जा सकता है । इस वर्ष कांग्रेस ने न केवल कर्नाटक में अपना परचम लहराया बल्कि हिमाचल प्रदेश में भी उसने अपनी सरकार बना ली । फिलहाल तो वह चार राज्यों में अपने बलबूते पर सत्ता में बैठी है । यह सही है कि कांग्रेस अपने सबसे अधिक बुरे दिनों के दौर से गुजर रही है, उसके कई नामीगिरामी नेता उसका साथ छोड़ चुके हैं बावजूद इसके उसको राज्यों में मिल रही सफलता रेखांकित करने को और उत्साह बढ़ाने को पर्याप्त है । जब भी राजनीतिक दलों के आम कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता है तब ही सफलता भी उनके आगे-पीछे घूमने लगती है । कांग्रेस के कार्यकर्ता मुतप्राय बैठे थे और हताश थे, पर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने उनमें उत्साह भर दिया । इसकी परणिति हिमाचल विधानसभा के चुनावों में जीत दर्ज होने के साथ ही हुई और अब कर्नाटक के चुनावों में भी जीत मिल गई है । यह जीत निश्चित ही कांग्रेस के लिए आगामी राज्यों में होने वाले विधनसभा चुनावों में भी संजीवनी का काम करेगी । वेसे भी कांग्रेस के पास खोने को तो कुछ था ही नहीं, वह अपना सारा कुछ तो पहले ही खो चुकी थी, उसको तो केवल पाना ही पाना था जो उसने पा लिया, अब चिन्तन की बारी भाजपा की है । ऐसा नहीं है कि भाजपा कर्नाटक के चुनावों का पूर्वानुमान न जानती हो, वह तो प्रयास कर रही थी कि यदि संभव हो तो सत्ता बचा ली जाए अथवा घटती सीटों का गणित कम कर लिया जाए । संभवतः वह इसमें सफल भी रही । प्रधानमंत्री जी के ताबड़-तोड़ दोैरों ने उनकी कई सीटों को कांग्रेस के पास जाने से बचा भी लिया । ऐसा नहीं है कि भाजपा ने चुनाव में मेहनत नहीं की, की पर उस मेहनत का फल उन्हें नहीं मिल पाया । सबसे खराब हालत क्षेत्रीय पार्टी जेडीएस की हुई, वह अपने अनुमान से कम सीटों पर जीत पाई । कभी सत्ता की कुंजी बनने वाली जेडीएस इस बार कुंजी नहीं बन पायेगी । भाजपा के सामने अभी पांच राज्य और हैं जिनके चुनाव इस वर्ष के अंत तक होने हैं इनमें मध्यप्रदेश में तो भाजपा ही काबिज है वे कमलनाथ की सरकार को गिरकार सत्ता में आई थी तब से ही बिफरे हुए कमलनाथ मध्यप्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करने और आम मतदाताओं को अपनी ओर मोड़ने की मुहिम मे लगे हुए हैं । उनकी जी तोड़ मेहनत अब दिखाई भी दे रही है । ऐस पूर्वानुमान लगाया जाने लगा है कि मध्यप्रदेश में भी सत्ता परिवर्तन होगा, कर्नाटक की तरह । इस पूर्वानुमान ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा कार्यकर्ताओं की नींद उड़ा कर रखी हुई है । वे मेहनत तो कर रहे हैं, पर इस मेहनत को वो कितना वोटों के रूझानों में बदल सकते हें यह देखना होगा । महाराष्ट्र में भाजपा ने शिवसेना के बागी विधायकों को प्रश्रय देते हुए अपनी सरकार बना ली भले ही पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस को उपमुख्यमंत्री बनने मजबूर होना पड़ा हो, पर माननीय उच्च् न्यायालय ने इस सरकार के गठन की पूरी प्रक्रिया को कठघरे में ख्ड़ा कर दिया । राज्यपाल के निर्णय की आलोचना की और विधानसभ अध्यक्ष के निर्णय पर प्रश्न उठाए । बहुत क़ड़ी टिप्पणी की है न्यायालय ने । आश्चर्य की बात तो यह है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री इसे लोकतंत्र की जीत बताते रहे । न्यायालय ने जिस ढंग की टिप्पणी की वो लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं हो सकती । भारत का लोकतंत्र विश्व के पटल पर अपनी अलग पहचान रखता है, इसकी अपनी गरिमा है पर विगत कुछ वर्षों से यह गरिमा गिर रही है । राज्यपालों को संविधान ने राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्यों में पदस्थ किया है । इनके पास सीमति अधिकार होते हैं, पर विगत कुछ वषों ने राज्यपालों के निर्णयों के चलते कई प्रश्नचिन्ह लगाये गये हैं कई बार सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपालों के निर्णयों को बदला है पर इस बार तो बहुत कडी टिप्पणी की है । अच्छा यह हुआ कि महाराष्ट्र के तात्कालीन राज्यपाल कोश्यिारी जी बीच में ही अपना पद छोड़ कर रिटायर होगए पर यदि वे अभी भी पद पर ही होते तो उनकी स्थिति ‘बेचारगी’’ भरी हीे होती । अब यह बात तो साफ हो चुकी है कि महाराष्ट्र की शिवसेना सरकार को एक षडयंत्र के तहत गिराया गया था । यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत तो नहीं हैं । सरकार राज्यों के मतदाताओं द्वारा चुना जाता है, यदि इसके साथ छेड़-छाड़ होती है तो राज्य का मतदाता तो नाराज होगा ही । कर्नाटक इसका उदाहरण माना जा सकता हे और अब महाराष्ट्र भी उदाहरण बन रहा है, कल को जब वहां चुनाव होगें तब क्या भाजपा को या एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को फिर से सत्ता मिल पायेगी । महाराष्ट्रमें अभी जो उपचुनाव हुए हें उन्हें देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि वहां के मतदाता इस पूरे घटनाक्रम से सहमत है । दिल्ली के जंतर-मंतर पर पहलवानों का धरना चल रहा है वे भी एक लोकसंवक के खिलाफ धरने पर बैठे हैं जिसे पर वे खुल आम आरोप लगा रहे हें कि वो महिलाओं के साथ असामान्य हरकतें करता था । कितना शर्मनाक होता है ऐसा अरोप लगाना भी आरोप झेलना भी, आरोप यूं ही नहीं लगते यह तो हम सभी जानते हें और वे महिला पहलवान जो देश की शान मानी जाती हैं वे भी यूं ही आरेप नहीं लगाते हुए ऐसे धरने पर नहीं बैठ सकतीं । उनके साथ खिलाड़ियों का बड़ा समूह भी धरने पर बैठा है और बहुत दिनों से बेकाम बैठे किसान नेता भी उन्हें सपोर्ट कर रहे हैं । दुख की बात तो यह है कि जिन्हें इस पर कार्यवाही करनी चाहिए वे मौन साधकर बैठे हें । ऐसे ही तो यह धरना भी विशाल रूप लेता जा रहा है और आरोपों का स्वरूप् भी बढ़ा होता जा रहा है । समस्या का हल तत्काल निकाल देना ही समझदारी की बात होती है, संभवतः यह समझदारी नहीं दिखाई गई इसके कारण ही धरना और बदनामी दोनों विशाल रूप् लेते जा रहे हैं । इतने नामी गिरामी खिलाड़ियों का धरना देना और इतने गंभीर आरोप लगाना और सरकार द्वारा अनदेखा करना दोनों रहस्मयी होता जा रहा है । जो हमारी संस्कृति है उससे एक बात तो साफ होती है कि कोइ्र भी महिला तब तक ऐसे आरोप लगाकर खुद को बेइज्जत नहीं कराती जब तक की उसकी सहनशीलता जबाब नहीं दे जाती । इसका साफ मतलब है कि आरोप एकदम निराधार नहीं हो सकते । यह तो ववेचना से ही साफ होगा न तो विवेचना कराये जाने में हिचक क्यों ? एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपनी छवि को दांव पर लगना समझदारी की बात तो नहीं मानी जा सकती । शनैः-शनैः धरना आंदोलन बड़ा रूप् लेता जा रहा है, इसका अंत तो क्या होगा कहा नहीं जा सकता पर अंत तो करना ही चाहिए ।