कुछ तो ख़ता ज़रूर हुई होगी जमाने से
वर्ना सावन क्यूँ आनाकानी करता आने से
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हम सभी ने अपने स्कूलों के बंधे बंधाए सिलेबस में ये तो ज़रूर पढ़ा होगा कि धरती का कितना सारा हिस्सा पानी से घिरा हुआ है।सागर का पानी भाप बनकर बादल का रूप धारण कर लेता है और बरसात के रूप में वापस सागर में समा जाता है।लगभग हर परिवार में गीता के अध्याय भी चर्चा का विषय रहे होंगे जिनके माध्यम से हर किसी को इतना तो पता चल ही गया होगा कि परिवर्तन भी संसार का शाश्वत नियम है और बूँद का अपने स्त्रोत यानि सागर में लौट कर सागर का रूप ही हो जाना भी नियति का एक शाश्वत सत्य है।
“वेदों की भाषा और ऋषियों की वाणी
पढ़ सुनकर भी मानव क्यूँ रह गया अज्ञानी”
आज सारी मानव जाति के सामने एक ऐसा प्रश्न खड़ा हो गया है जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है।
इतनी सारी जल संपदा से घिरी मानव जाति आज इतनी प्यासी क्यूँ है कि कोई भी पेय पदार्थ उसके हलक का सूखापन भिगो नहीं पाता।क़ीमती से क़ीमती मादक सुरा की खुमारी भी केवल एक रात की मेहमान नवाज़ी को ही प्रतिबिंबित करती है।
आख़िर ऐसा क्या गुनाह हो गया मानव जाति से जिसके परिणाम स्वरूप आज सारी धरती का मीठा पानी नयनों के खारे नीर में सिमट कर रह गया है जो अपने स्त्रोत से फ़ासलों के समीकरण बुन रहा है।किसकी नज़र लग गई है मानवता को जो हर तरफ़ हाहाकार और चीत्कार का क्रंदन सुनाई पड़ता है।
कारण कोई भी हो मगर निवारण केवल मानव के ही हाथ में है।कोई माने या न माने लेकिन ये सच है कि आज मानवता एक ऐसे अस्तित्त्व के रूप में रूपांतरित हो गई है जिसका कोई व्यक्तित्व ही नहीं है।अपना ही घर फूँक कर भीड़ जुटा लो, सिक्कों के दम पर रिश्ते चला लो, बाज़ार से ख़ुशियों के सौदे करवा लो, वतन की अस्मिता दाँव पर लगाकर संस्कृति का चीरहरण करवा लो, सरेआम जिस्मों के व्यापार करो और वर्चुअली गंगाजल से नहा लो।
“हर तरफ असहिष्णुता की शुष्क हवाओं का ही ज़ोर है
बरसे कैसे सावन मानव द्वारा मानवता के क़त्ल का शोर है”
बग़ैर किसी उच्चतर आदर्श के अंधकार मय पथ पर भटकती मानव जाति कब तक दिशा विहीन भटकती रहेगी?जब तक मन के भाव उज्ज्वल नहीं होंगे तब तक अहम का ताव मानव जाति को उसके जीवन का उद्देश्य मुक्कमल करने में बाधाएँ ही उत्पन्न करता रहेगा।
कितने ही स्वर्गों की कल्पना क्यूँ न कर लो लेकिन हिंसा का मौसम कभी समाधानों की बौछार नहीं कर सकता।अगर सावन को आने की विनती करनी है तो अपने दोषों की गिनती शुरु करनी होगी।
“जब जन कल्याण का ताप चढ़ेगा
तभी परस्पर प्रेम की ओर कदम बढ़ेगा”
आज वक्त की ये माँग है कि हम सब एक बार फिर अपने बचपन की तरफ़ लौट चलें और एक निगाह डालें ज़िंदगी के उस पहले सबक पर जो सबको मातृ शक्ति सिखाती है जिसे पढ़कर विवेकानंद पैदा होते हैं।
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क्या कब कैसे क्यूँ और कहाँ
बोलना या नहीं बोलना सिखाती है माँ
दिन को रात किसी क़ीमत पर मत कहना
सदाचार के नियम हर रोज़ ही पढ़ाती है माँ
सच क्या है सच कब बोलना है सच कैसे बोलना है
सच क्यूँ बोलना है सच कहाँ बोलना है समझाती है माँ
रूपांतरित हों सब सिखावनें कोख़ से कब्र तक इस क़दर
मानवता धड़के मानव की हर धड़कन में तभी मुस्कुराती है माँ
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अपनी अरदास में से अपने स्वार्थ त्याग कर जनहित की याचिका लगाकर तो देखो सावन की दस्तक सुनाई पड़ेगी।
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कविता मल्होत्रा (संरक्षक, स्थायी स्तंभकार)