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गुलाबी/काला/ सफेद..

कई दिनों से!दिन क्या महीनों से बंद हूँ।न खुलकर सांस ले पा रहा हूँ,न ही रोशनी की किरण ही मुझ तक पहुँच रही हैं।दम घुट रहा है।

             शायद उसके कदमों की आहट है। पता नहीं आज क्या करेगा? मुझे निकालेगा या मुझ जैसे और साथियों को यहाँ बंद कर देगा। हे ईश्वर!

               हाँ वही है।सफेद झक कुर्ते पायजामे में ,सिर पर सफेद टोपी…. न जाने क्यों उसे देख कर मैं अंदर तक काँप चाहता हूँ। मौत का डर तो हर एक को ही सताता है न।

             अरे वाह!आज तो इसने मुझे और मेरे कई साथियों को बाहर निकाला।रोशनी देख मेरी आँखें चुँधिया गईं। मैंने खुलकर गहरी सांस ली पर तभी उसने हमें एक बैग में ठूँस-ठूँस कर भर दिया।

           बाहर की आवाज भी कानों में पड़ी।गाड़ी में सवार हूँ मैं। उसने हमें काले बैग से निकाल सोने की मोटी चेन पहने मोटी काली मूंछ वाले आदमी को थमा दिया।

       “बाबू बहुत भूख लगी है।दो दिन से कुछ नहीं खाया है।”

   पिचके पेट वाले नंगे बदन बच्चे ने खुले बैग से  मुझे झाँकते देख हाथ फैलाया।

 “चल दूर हट।जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं !”

मेरा दिल पसीज गया। “वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने न।” धीरे से मेरे कंठ से निकला पर मैं फिर दूसरे काले बैग में बंद हो गया।

मैं ठहरा जन्मजात गुलाबी कीमत दो हज़ार पर जिंदगी तो काले सफेद के बीच ही झूल रही है।

यशोधरा भटनागर

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