जब-जब सिमटती है, एक स्त्री दायरे में।
दूरियां बनाती है, वह अपनी कामयाबियों से।
देह और प्रजनन के दायरों में सिमटकर ,
बढ़ती है दूरियां उसकी उपलब्धियों से ।
एक स्त्री भी जन्मी है ,अपना स्वतंत्र वजूद लेकर।
फिर दायरो की सीमा में सदैव क्यों बंधी रही?
विवेक व ज्ञान से जिसके वजूद का निर्माण होना था ,
क्यों वह सदैव रुप यौवन के छलावे में छलती रही।
जिस मान सम्मान की वह अधिकारिणी, हकदार है।
क्यों दूसरों के रहमों करम पर पलती रही?
भावनाओं में बहकर स्त्री सदैव अश्रुपूरित रही।
जिसे पहुंचना था शिखर पर, वह अपना स्थान धरातल पर रखती रही।
जिसे जगानी थी अपनी चेतना, वह खुद ही शून्य होती रही।
स्वरचित मौलिक
प्राची
बुलंदशहर उत्तर प्रदेश