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कमाई धंधा

करीब सन् उन्नीस सौ चौहत्तर पिचहत्तर का समय था ,तब तक बहुत ज्यादा शिक्षा का विकास नहीं हुआ था। समाज का एक ‌बड़ा तबका बहुत ही गरीब लाचार और बदहाल था। नीरजा का परिवार रेलवे की फोर्थ क्लास की कालोनी में रहा करते थे। वहां आसपास रेलवे के ही सफाई कर्मचारी भी रहा करते थे। उनके घरों की औरतें दो रुपए प्रति घर के हिसाब से कॉलोनी में रहने वाले लोगों के शौचालय की सफाई किया करती थीं। धीरे-धीरे उनका रेट बढ़ा था। उनके घरों के कुछ पुरुष सदस्य तो रेलवे में सफाई कर्मचारी थे और कुछ निठल्ले बैठे सस्ती शराब और जुआ खेलकर  अपना अनमोल समय गंवाते रहते थे। वे अगर चाहते

तो मेहनत मजदूरी करके  कोई भी काम धंधा कर सकते थे, पर नहीं । यही नहीं उनकी घर में बीवियां भी जो कमा कर लातीं उसे भी छीन लेते और उससे भी काम नहीं चलता तो घर के

बर्तन भांड़े पर भी हाथ लगा देते थे।कभी कभी तो अपनी बीवियों के जेवर तक बेचकर शराब की भेंट चढ़ा दिया करते थे।आये दिन ही उनके

मोहल्ले से लड़ाई झगड़े व मारपीट की आवाज सुनाई देती थी।

       उसी मोहल्ले में एक बहुत सुंदर सी महिला चिरौंजी रहा करती थी।उसे देखकर कोई भी नहीं कह सकता था की यह नौ दस साल के बेटे की मां है। उसकी सुंदरता से अच्छे से अच्छे घरों की महिलाओं को भी ईर्ष्या होती थी।

      “अरे सुन  चिरौंजी तू अपने चेहरे पर क्या लगाती है ?

    और भूरी भूरी आंखों वाली चिरौंजी हंस देती

क्या लगाऊंगी  चाची ,सब्जी छौंकने को तो तेल मिलता नहीं चेहरे पर क्या लगाऊंगी?

     चिरौंजी की एक आदत सभी को बहुतभाती थी वह यह की वो हमेशा हंसती रहतीथी। अभी उसकी आयु भी थी ही कितनी ? यही करीब  पच्चीस छब्बीस साल की थी वह ।जबभी मां के पास बैठती चिरौंजी अपनी पूरी राम कहानी ही सुना डालती।

    “भाभी मैं भी पढ़ना चाहती थी पर हमारे में लड़कियों को पढ़ाते ही नहीं हैं।जब मैं छोटी थी

और दूसरे बच्चों को सड़क पर बैग लेकर जाते हुए देखती तो मेरा भी मन करता था की मैं भी

इनके साथ पढ़ने जाऊं।”

    “फिर अपनी मां से नहीं कहा की तुम पढ़ना चाहती हो।”मां ने उससे पूछा।

     “कहा तो था भाभी, पर सबने इसे मजाक में उड़ा दिया।बोले घर का काम सीखो ,घर का। दूसरे घर जाना है, और वहां पर तुम्हें कोई बना कर नहीं खिलायेगा यह सुनकर मैं चुप लगा जाती थी ।” चिरौंजी ने अपने आंचल से भीग आये आंखों की कोर को पोंछा।

            बातों ही बातों में चिरौंजी ने बताया कि कैसे उसके यहां बारह तेरह साल में शादियां हो जाया करती हैं। उसकी शादी भी तेरह साल में हो गयी थी ।और पन्द्रह साल में एक बेटे की

मां बन चुकी थी।

      कुल पच्चीस साल की चिरौंजी कालोनी के जिन घरों में कमाती थी मतलब उनके शौचालय

साफ करती थी उन सबसे बहुत ही प्रेम से बात करती थी लेकिन जहां उसने गलत आंखें देखीं

वहां उनके इज्जत का कचूमर भी बनाकर रख देती थी। उसका कहना था कि औरत जाति के

लिए उसकी इज्जत ही सबसे बड़ी थाती यानी पूंजी होती है।

           चिरौंजी के शरीर पर दो चीजें अलग से नजर आतीं थी। एक तो उसके माथे पर दूर से ही चमकती हुई बड़ी सी बिन्दी और दूसरा था उसके पैर में छम-छम करता हुआ छागल। छागल चांदी का बना हुआ चौड़ा सा आभूषण था जिसमें ढेर सारे घुंघरू लगे होते थे। इसे पेंच के सहारे पैरों में पहना जाता था। कई बार तो उसके छागल की आवाज  ही उसके आने की सूचना दे देती थी। एक दिन वह सुबह भोर में उठी तो छमछम नहीं हुआ । उसने चौंक कर अपने पैरों की ओर देखा तो उसके दोनों ही  पैरों से छागल गायब थे। घर में चिरौंजी उसका पति और एक बेटा बट्टू बस तीन लोग ही तो थे। रोज रात में वह छागल का पेंच कस लेती थी ताकी वह कहीं गिरे नहीं।चोरी के डर से वह कभी भी पैरों से छागल उतारती भी नहीं थी फिर छागल गया तो कहां गया। उसका पति झिंगन भी भोर में ही उठकर ,उसे बिना बताए  घर से  कहीं चला गया था । अब तो चिरौंजी का पूरा शक अपने पति झिंगन पर गया। वह पूरे दिन भर रोती रही ,बट्टू भी उसके पास बैठा रहा। दोपहर में पड़ोस की आंटी ने बट्टू को किसी तरह कुछ खिला दिया पर चिरौंजी ने कुछ भी नहीं खाया। रात में शराब के नशे में चूर घर में आया तो चिरौंजी रोते हुए मिली। उसका लड़का बट्टू भी पास में बैठा हुआ था। चिरौंजी को रोते देखकर झिंगन सहम सा गया।

 इधर चिरौंजी उसे देखते ही बिफर पड़ी,”सच सच बता ,मेरा छागल कहां है?”

 ‌‌         “छागल ?अरे तेरे लिए उससे भी अच्छा छागल बनवा देंगे ,वो तो पुरानी हो गईथी।”कहा जाता है कि लोग शराब पीकर सचसच बोलते हैं तो वैसा ही हुआ और झिंगन नेभी साफ़ साफ़ बता दिया कि उसने ही चिरौंजीका छागल लिया है और उसे बेचकर वह शराब पी गया तथा बचे पैसों से पहले की शराब की उधारी भी चुकता कर दी थी।

          बट्टो और उसका कुत्ता उन दोनों के पास ही बैठे थे।इस कुत्ते को बट्टो ने बहुत ही छोटे-से

पाला था। उसने इसका नाम जित्तू रखा था।छोटा सा जित्तू अब काफी तगड़ा और मोटा हो  गया था । बट्टू जब स्कूल से आता तब से उसके सोने तक वह साथ ही रहता। फिर बाहर

दरवाजे पर जाकर बैठ जाता था। सुबह बट्टू को स्कूल तक छोड़ने जाता था। दोपहर में जब

छुट्टी होती बट्टू को जित्तू स्कूल की गेट पर खड़ा मिल जाता था। चिरौंजी भी उसे बहुत मानती थी।घर में जो कुछ भी बनता उसमें एक भाग जित्तू का भी होता था।जित्तू को बट्टू और चिरौंजी से खास लगाव था। चिरौंजी का रोना उसे अच्छा नहीं लग रहा था।जब जब झिंगन अपनी आवाज तेज करता कुत्ता जित्तूउसपर भौंकने लगता था। क़रीब दो दिन तक उनके घर में लड़ाई चलती रही।

     अब तक झिंगन तंग आ चुका था।  कुत्ते का उसपर भूंकना अब उसे कत्तई बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उसने पास पड़े सिल के भारी बाट को उसकी तरफ फेंका ,पर जब अनहोनी होनी हो

हो ही जाती है। झिंगन द्वारा गुस्से में पूरे जोर से फेंका गया सिलबट्टा सीधे कुत्ते के सिर पर

पड़ा और कुत्ता यानी जित्तू वहीं पर ढेर हो गया।

   चिरौंजी सारा रोना धोना भूलकर कुत्ते की ओर दौड़ी,बट्टू कुत्ते को झिंझोड़ने लगा । झिंगन उस कुत्ते को लेकर बाहर आ गया की उसे हवा मिलेगी। कोई भी उपाय काम में नहीं आया।कुत्ता मर चुका था। झिंगन पछता रहा था की उसने सिलबट्टे से कुत्ते को क्यों मारा? बट्टू बेतहाशा रो रहा था और कुत्ते को झिंझोड़ रहा था,”उठ जित्तू ,उठ।अब हम लोग इन लोगों के पास नहीं रहेंगे ,तू उठ जा बस।

    यह दृश्य देखकर वहां खड़े सभी द्रवित हो रहे थे और झिंगन को बुरा भला कह रहे थे।

फिर झिंगन को जाने क्या सूझी वह कुत्ते को उठाकर कालोनी में छोड़ गया। सुबह वही दृश्य

कालोनी में भी चल रहा था ।बट्टू कुत्ते को पकड़कर रो रहा था, चिरौंजी बेटे को समझाने

में लगी हुई थी। तभी लोगों ने कहा की हम लोग सब सोलह लोग हैं सब पांच पांच रुपए दे दें

और इस मरे हुए कुत्ते को फिंकवा दिया जाये।

कुछ ही देर में चालीस रुपए झिंगन के हाथ में आ गये थे। उसने पहले तो कुत्ते को ले जाकर

गहरा गड्ढा खोदकर दफनाने का काम किया।

      घर आकर उसी चालीस रुपए में चिरोंजी के लिए छागल खरीदा ।चिरौंजी छागल पाकर

खुश तो हुई पर कुत्ते के मरने का उसे बहुत दुख था। सबसे ज्यादा असर पड़ा बट्टू पर ।उसे लग रहा था जैसे उसने अपना एक मित्र खो दिया है।

   सफाई कर्मियों के पियक्कड़ आवारा टाइप के लोगों को इसमें आय का साधन दिखा।अब

हर दो चार महीने में काॅलोनी में कोई न कोई कुत्ता मरा पड़ा रहता और काॅलोनी के लोग

पैसा देकर उसे फिंकवाया करते थे।यह उनका एक कमाईधंधा बन गया था।

डॉ सरला सिंह “स्निग्धा”

दिल्ली

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