जेएनयू को जनतांत्रिक शिक्षण संस्कृति के लिए जाना जाता है। जेएनयू की एक पूरी सांस्कृतिक विरासत है। जिसके निर्माण के पीछे एक विचार था देश में एक ऐसे शिक्षण संस्थान की स्थापना का जिसमें बौद्धिक खुलेपन, विकास-विवाद, सहमति-असहमति और स्वतंत्र जीवन शैली की पूरी गुंजाइश हो, जहाँ पैसे की तंगई प्रतिभाओं के आड़े न आएं। परिणामस्वरूप जेएनयू भारत के दूरदराज के इलाकों के दलित, आदिवासी, गरीब और पिछड़े वर्ग के प्रतिभाशाली छात्रों के सपनों को साकार करने वाला संस्थान बन गया। यहाँ संघर्ष का इतिहास लंबा है। छात्र हितों के लिए जेएनयू से हमेशा आवाज उठती रही है। ताजा मामला फीस वृद्धि का है जिसको लेकर जेएनयू छात्र सड़क पर है।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार की न्यूनतम प्राथमिकता मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य की होती है। शिक्षा पर सभी का समान अधिकार हो तथा सभी तक इसकी पहुँच हो इसके हेतु सरकार को प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। जेएनयू छात्रों का यह प्रदर्शन वाज़िब है लेकिन काश जेएनयू के छात्र आत्मकेंद्रित न होकर देशभर के छात्रों की समस्या एवं महँगी होती शिक्षा को अपना मुख्य मुद्दा बनाते। आज जेएनयू को लेकर भारतीय-समाज दो भागों में बँटा दिखता है। एक तबका जहाँ इसके महिमामंडन में लगा है और फीस वृद्धि को लेकर सरकार को कटघरे में कर रहा है, वहीं दूसरा तबका फ़ीस-वृद्धि को जायज़ बताता है। कुछ अतिवादी तो, इसे मुफ़्तख़ोरी मान इसे बंद करने की पुरज़ोर मांग कर रहे हैंI
मेरा मानना है कि जो लोग इसकी मेधा पर सवाल उठा रहे है वह कभी इसके एंट्रेस एग्जाम को पास नही कर सकते। उनको जेएनयू की बौद्धिकता पर प्रश्न उठाने से पहले यह जान लेना चाहिए कि देश को जेएनयू ने एक-से-बढ़कर-एक विद्वान दिया है, विभूतियाँ दी हैं। चाहे वह वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण हों या विदेश मंत्री एस. जयशंकर या अभिताभ कांत या संजय बारू सभी जेएनयू की ही देन है। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इसी वर्ष जेएनयू ने भारत को एक नोबेल प्राइज दिया है। लब्बोलुआब यह कि जेएनयू की पढ़ाई या उसकी मेधा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
परंतु पिछले कुछ समय से यहाँ की शिक्षण संस्कृति, बौद्धिकता और राष्ट्रवादी मूल्यों पर आघात हुआ है। कुछ कुंठित मानसिकता वाले व्यक्तियों ने राष्ट्रवादी विचारों को खंडित करने का प्रयास किया है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जेएनयू के कैंपस में “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं”, “भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशाल्लाह इंशाल्लाह” या “भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जारी” जैसे भारत विरोधी नारे लगाए गए। ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्त्वों पर सख़्त से सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। हमें यह बर्दाश्त नही कि जनता के पैसे से पढ़ रहे बच्चे इस देश की सांस्कृतिक धरोहर पर चोट करें या देश विरोधी नारे लगाएं।
सरकार जेएनयू के एक छात्र पर औसतन 4 लाख ख़र्च करती है तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस पैसे का सदुपयोग हो। देश किसी पर इसलिए इतना व्यय नहीं करता कि वह राष्ट्रनायक (स्वामी विवेकानंद) का अपमान करे! ऐसा करके वो अपनी संकुचित मानसिकता का परिचय तो देते ही हैं, साथ ही देश में जहर घोलने का काम भी करते है। हमें ऐसे राष्ट्रविरोधी तत्वों का समुचित प्रबंधन करना होगा जिससे जेएनयू कैंपस में छात्रों को साफ़-सुधरा माहौल मिल सके। साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि जेएनयू में पढ़ने वाला हर छात्र देशद्रोही नहीं होता। उनमें से अधिकांश सामान्य परिवार और कभी-कभी तो अत्यंत ग़रीब परिवार से आते हैं और इस देश को उतना ही प्यार करते हैं जितना कि बाक़ी लोग। हमें इस आंदोलन में जेएनयू के उन छात्रों के साथ होना चाहिए जो फीस वृद्धि का विरोध कर रहे हैं और उनके प्रति हमारी संवेदना जागनी चाहिए। जब जेएनयू छात्रों पर सरकार के लाठी-डंडे पड़ते है तो वह केवल उन पर ही नही बल्कि समस्त छात्रों की अस्मिता पर प्रहार होता है। सरकार कोई भी हो, हमेशा छात्रों की आवाज को दबाने का प्रयास करती रहीं हैं।
जो लोग फीस वृद्धि का समर्थन करते है उन्हें एकबार उन छात्रों के घरों की ओर जरूर देखना चाहिए जिनकी पीढियां खेतिहर मजदूरी करते हुए कभी शिक्षा संस्थानों का मुंह भी नही देख पाई। एक ओर हम आर्थिक-सामाजिक समानता की बात करते है। वंचितों और पिछड़ो को उनका अधिकार दिलाने की बात करते है ऐसे में उनके आर्थिक पिछड़ेपन को नजरअंदाज क्यों करते हैं? मगर जरूरी यह भी नही कि जेएनयू का हर छात्र आर्थिक दृष्टिकोण से कमजोर हो, कुछ सशक्त भी होते है।
पिछले कुछ दिनों से जिस तरह की तस्वीरें मीडिया जेएनयू को लेकर बता रहा है, जेएनयू की साख को उछाल रहा है उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश व विश्वविद्यालय की छवि धूमिल हो रही है। मीडिया को यह भी समझना चाहिए कि जेएनयू भारत नही है। जेएनयू के बाहर भी कही समस्याएं है, कई संस्थान हैं जिनमें छात्र महँगी होती शिक्षा के खिलाफ आवाज उठा रहे है। उत्तराखंड में आयुष के छात्र पिछले 20 दिनों से सड़कों पर उतरकर फीस वृद्धि का विरोध कर रहे है। जिनकी फीस 80 हज़ार से बढ़ाकर करीब 3 लाख रुपये कर दी गई। उनके संघर्ष को भी उतनी ही तवज्जों मिलनी चाहिए, राष्ट्रीय स्तर पर देश के हुक्मरानों और शिक्षा के व्यवसायियों के कानों तक उनकी आवाजें पहुँचनी चाहिए।
लब्बोलुआब यह है कि हम अपनी कई सारी प्रतिष्ठित संस्थानों का कबाड़ा कर चुके है और अब हमारी निगाहें जेएनयू पर हैं। हमारे कई शिक्षा संस्थान पहले से ही शिक्षा से विमुख हो चुके है और अब हम जेएनयू की साख को बट्टा लगाने पर उतारू है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश का एक प्रतिष्ठित संस्थान है जो विदेश में भी भारतीयों के गर्व का कारण है। हमें जेएनयू के साथ खड़ा होना चाहिए और हर राष्ट्रविरोधी तत्वों के विरोध में आवाज उठानी होगी।
– पुरु शर्मा