देवेन्द्र कुमार पाठक
गांव में अब मास्क कोई भी नहीं लगाता.हाँ, वे लोग घर, जेब, बैग-थैले में एक-दो मास्क जरूर रखे रहते हैं, जो कुछ पढ़े-लिखे हैं या फिर वे सयाने जिन्हें शासन-सियासत, आधि-व्याधि, सूखा-बाढ़, अकाल-गिरानी और दुनियादारी की गहरी समझ है. जिनको ऐसे दुर्दिन भुगतने- झेलने के बड़े तल्ख और कड़वे अनुभव हैं.
गाँव के साप्ताहिक बाजार के दिन थाने से कोई न कोई पुलिसवाला ड्यूटी पर जरूर आता है. मास्क न लगने पर उसके डंडे खाने या भेंट-पुजाई, पुष्पम-पत्रम की चढ़ोत्तरी करने के डर से लोग जेब में मास्क संभाल-सहेजकर रखते हैं. कुछ तो कान से फंसाकर, गले में लटकाये फिरते हैं.
मेरे गाँव में हफ्तावारी बाजार की उमर अब बरसों-दशकों क्या सदी से भी ज्यादा हो गयी. आज़ादी की पहली लड़ाई के दिनों से इस गांव में जैसा बाजार लगता है, वैसा ही बाजार उत्तर- पश्चिम में पाँच-सात कोस दूर गोंड़ रजवाड़ों की बस्ती ‘बड़वारा’ में, उनकी बखरी के पीछे की चौड़ी गली में जुटता है. इससे उल्टा दक्षिण में इतनी ही दूर पर मारवाड़ी शर्मा जमींदार के गाँव ‘देवरी मारवाड़ी’ के पास के गांव ‘खमतरा’ में भी बाजार लगता है. पूरब में डेढ़-दो कोस पर ‘छोटी महानदी’, जो जिला-सम्भाग की दक्षिण-पूरब की सीमा तय करती बहती है; आगे उत्तरी सीमा पर सोन नदी से मेल-भेंटकर ‘बाणसागर’ बांध को रूपाकार देती है. इस बांध से दक्षिणी उत्तर प्रदेश के प्यासे बुंदेलखंड सीमांत को पानी पहुंचता है……….’छोटी महानदी’ के इस पार दक्षिण-पश्चिम का गोंड़ रजवाड़ों और मालगुजारों का यह इलाका ‘अंगरेजी’ कहा जाता था. यह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया था. यहां की बोली -बानी में ‘बघेली’, ‘बुंदेली’,
‘गोंडी’, ‘खड़ी बोली’ तथा ‘अंग्रेजी’ शब्दों के पचमेल होने से इसे ‘पचेली’ बोली का क्षेत्र कहते हैं. छोटी महानदी के पार पूरब से उत्तर तक फैला ‘बघेलखण्ड’ या ‘रीवा’ रियासत कहा जाता था. रियासत की मूल बोली ‘बघेली’ या ‘रिंवहाई-रीवानी’ है. अंग्रेजों के कब्जे में आ चुका यह भारत का मर्मस्थल अब महाकोशल है. यहां से कर्क रेखा चलती हुई आगे अमरकंटक से होकर छत्तीसगढ़ निकलती है ….रीवा, मैहर, पन्ना, विजयराघवगढ़ की रियासतों के आधीन कितनी ही जमीदारियाँ, मालगुज़रियाँ थीं, जिनके आधीन कई कई गाँव- देहात जंगल,तालाब होते. रजवाड़ों, ज़मीदारों या मालगुजारों के गांव में साप्ताहिक बाजार लगते ,जो आसपास के छोटे-मंझोले गंवई-देहातों के रहवासियों की जरूरतों को पूरा करते थे. ऐसा सबसे बड़ा बाजार छोटी महानदी के पार पूरब में ‘चंदिया’ कस्बे का था. यहां बघेल राजा की गढ़ी के बाजू से लेकर थाना चौकी तक आधा कोस बाजार भरता था. बड़वारा के गोंड़ ज़मीदारों की बखरी के पीछे का बाजार मंझोला और ‘भुड़सा’ का बाजार उनसे छोटा पर ‘खमतरा’ के बराबर लगता था. खमतरा से आगे पश्चिम में मंझोला साप्ताहिक बाजार ‘रामपुर-ढीमरखेड़ा’ का था. ‘चंदिया’ की बराबरी का बाजार ‘उमरिया पान’ का होता था. यहां के चौरसिया बरजे बनाकर ‘पान’ का प्रचुर उत्पादन करते हैं. ‘उमरिया पान’ के समीप अरण्य स्थल के ‘करौंदी ग्राम’ में इस महादेश भारत का केंद्र ‘मनोहर ग्राम’ स्थित है. सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और समाजवादी विचारक ‘डॉक्टर राममनोहर लोहिया’ की स्मृति में इसे बनाया गया है. यहीं पर भावातीत ध्यान के प्रणेता ‘महर्षि महेश योगी’ के द्वारा स्थापित महर्षि विद्यालय और वैदिक शिक्षा केन्द्र संचालित है. कर्क रेखा इसी केंद्रबिंदु से होकर गुजरती है,यह स्थान अब ‘कटनी’ जिले में ‘ढीमरखेड़ा’ तहसील के अंतर्गत है. सिहोरा तहसील में आगे ‘खितौला में बड़ा बाजार उससे भी बड़ा जुटता है. सिहोरा और जबलपुर के बीच ‘पनागर’ में पशुओं का बाजार’ लगता था, जो दुग्ध उत्पादन केंद्र के रूप में ख्यातिलब्ध है किंतु पशु विक्रय बाजार की अब कहानी ही शेष है. नयी तकनीक की यांत्रिक खेती ने पशु यंत्र की आवश्यकता को लगभग खत्म ही कर दिया है और भारतीय गोवंश आवारा होकर भूखा फिरता लाठियां खाने,सड़कों पर वाहनों से टकराकर या पन्नी-पुट्ठा खाकर मरने की विडंबना भुगत रहा है. गोवंश, विशेषतः गाय के नाम पर परवान चढ़ी मौजूदा सियासत पूरी निर्लज्जता से इन का फायदा उठा रही है……आज इन आवारा पशुओं से ज़्यादा अहमियत बकरे की है……
बात ‘मास्क’ से शुरू होकर अटक-भटक आखिरकार गोवंश पर आ ही गयी. अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ रहे मेरे आठ बरस के पोते ने मुझसे पूछा, “बब्बाजी, मास्क को हिंदी में क्या कहते हैं ?”
“स्कूल में तुम्हारी मैडम ने क्या बताया है ?” मैंने उल्टे उसी से पूछ लिया.
“मुखौटा!” उसने बताया.
“नहीं बेटे, हमारे गांव-घर की बोली में हम इसे ‘मुस्का’ कहते हैं. ‘मुखौटा’ तो पूरे चेहरे को छुपा लेता है. जैसे तुम्हारे पास शेर,भालू,बंदर जैसे कई जानवरों के मुखौटे हैं.”
इस ‘मास्क’ न मुझे ‘मुस्के’ की स्मृति से जोड़ दिया है. आज से पचास -पचपन बरस पहले के वे खेत-खलिहान और खेती-किसानी की यादें ज़हन में साकार हो रही हैं. जब हम प्राथमिक-मिडिल स्कूल के विद्यार्थी हुआ करते थे, तब आज की तरह छुट्टियों की कटौती नहीं होती थी. गर्मी के दिनों में पूरे दो माह मई-जून में स्कूल बंद रहते थे. ज़्यादातर बच्चों को ननिहाल जाने का यही सुअवसर होता. मुझे इस ग्रीष्मावकाश में दीदी-माँ के साथ शहर जाकर पिताजी के पास किराये के घर में रहने और वहां मकान मालिक शर्मा वकील साहब के घर पर रखी, मेरी राह देखती पत्रिकायें पढ़ने का आनन्द लेने का मौका मिल जाता. ‘चंदा मामा’, ‘नन्दन’, ‘पराग’, ‘बाल भारती’ के अलावा चित्रकथाएं पढ़ने को मिलतीं.
‘दशहरा-दीवाली’ अवकाश पूरे चौबीस दिन और बड़े दिन की छुट्टियां हफ्ते भर की होतीं. अवकाश के दिनों में ज़्यादातर घरों के बच्चों को खेत-खलिहान में जाकर खेती के कामों में मदद करनी पड़ती थी.
मेरे पिताजी भले ही ‘आर्डिनेंस फैक्ट्री कटनी’ में ‘धातु-परीक्षक’ पद पर कार्यरत थे. उन्हें तब सातवें दशक में लगभग तीन सौ रुपये मासिक पगार मिलती थी. पर उन्हें अपने गांव-घर की खेती-किसानी से बड़ा लगाव था. ….दादी की मृत्यु के बाद दीदी-माँ हमें साथ ले गांव में ही रहकर खेती करवातीं. जब सियारी (खरीफ) की फसल पकती तो हमें खलिहान में जाकर धान की ‘दाँवनी’ या गहाई में बैलों को हांकते हुये उनके पीछे-पीछे घूमना पड़ता था. बैल दाँवनी में चक्कर लगाते हुये आनाज न खाएं, इसलिए उनके मुंह पर मुस्के बाँधे जाते. ये मुस्के बाकायदा मोजों की तरह मूंज, अमारी,या नारियल की रस्सियों से बुनकर तैयार किये जाते. बाज वक्त इस तरह के मुस्के का जुगाड़ न लगता तब बैलों के मुंह पर बांस की छोटी झपली या टोकनी ही बांधकर काम चलाना पड़ता था. बैलों को खरीफ और रबी की फसलों की गहाई के समय ‘पयार’ या ‘भूसा’ खाने की पूरी छूट थी पर दाना खाने पर नियंत्रण आवश्यक था. पेट भर अन्न खाकर बैल बीमार हो सकते थे. अलसी जैसे तिलहन की गहाई में बहुत सावधानी बरतते थे. अलसी को ज्यादा चरने या खाने से कई बार पशु मर भी जाते थे. इसीलिए गहाई करते समय उनके मुंह पर मुस्का बाँधना पड़ता था. धान की गहाई ( दाँवनी )के लिये आठ-दस घण्टे पर्याप्त होते किंतु गेहूं की गहाई में दो या तीन दिन भी लग जाते थे. बत्तीस छत्तीस घण्टे तक गहाई होती थी. उन दिनों गेहूं,चना,मसूर,अरहर,अलसी जैसी दलहन,तिलहन उन्हारी (रबी) फसलों के अन्न को गहाई के बाद भूसे से अलग करने के लिये किसान को ‘उड़ावनी’ करनी पड़ती थी.इसके लिये ‘बयार’ ( हवा के हल्के झोंके ) की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी. उन दिनों हमारे गांव में थ्रेसर नहीं थे. सुनते थे कि किसी गांव के बड़े किसान ने ट्रैक्टर से थ्रेसर चलाकर गहाई ओर उड़ावनी की है, तो मन दुखी हो जाता कि हमारे गांव में यदि बिजली आ जाती तो यह कई-कई घण्टों तक बयार की प्रतीक्षा करने की विडंबना न होती. …………
गांव में तब मालगुजार के कुएँ में डीजल पंप लगा था.उसे चलाने के लिये कुएं में आधी गहराई तक उतरना पड़ता.दो मजबूत मलगों (बल्लियों ) को कुंए की दीवार में गहरे तक गाड़कर उस पर मजबूत पटियों का तख्ता बांधा जाता, उस पर पंप को फिट करने शहर से मिस्त्री आते. मिस्त्री अपनी फटफटिया पर जब मालगुजार की बखरी के सामने आकर रुकते तो पीछे पीछे पचासों बच्चों और बड़ों की भीड़ आ जुटती…….
एक रस्सी को पंप के छक्के में लपेटकर जोर से खिंचने पर पंप ‘फट फट’ की आवाज करके जब चालू होता तब पानी की मोटी धार पाइप से बाहर बने हौज में गिरने लगती… उधर पंप ‘फटाफट….!….फटाफट…..!’ की लयकारी करता कुएं की छाती पर बैठा फटफटाता रहता… हम घण्टों खड़े यह सारी प्रक्रिया देखते थकते न थे.
गांव में सब्जियां उगाने वाले काछी और उनके कछवाड़े थे. किंतु पंप किसी के पास न था. रहँट ,मोट या ढेकुली से ही पानी निकालकर कछवाड़ों कीं सिंचाई की जाती थी……
आज मेरे गांव का हर खेतिहर कछवाड़े लगाकर सब्जियां उगाता और बेचता है. तब पच्चीस-तीस फुट के कुओं का पानी कभी नहीं कम पड़ता था. एक कुआं पचास परिवारों की प्यास बुझाता था.आज दो-ढाई,तीन सौ फुट गहरे बोर करवाके भी एक परिवार के खेतों की पर्याप्त सींच नहीं हो पाती. तब गेहूं की सींच मघावट (पूस-माघ की वर्षा )
से ही हो जाती थी.अब गेहूं ही नहीं,धान को भी सींचकर पकाने की नौबत आ गयी है.
भीतरीगढ़ की पहाड़ियों का वह मीलों लम्बा सिलसिला,जो सघन वृक्ष वनों,वन्य जीवों,औषधियों और बहुमूल्य खनि सम्पदा से आबाद था, अब सर मुड़ाये सन्यासियों सा उजाड़ पड़ा तेज धूप में तपता रहता है.नालों के कूल-कगारों पर ऊमर-कहुये (गूलर-अर्जुन ) जो जल सम्पदा के सजग प्रहरी से तने खड़े रहते थे,अब काल कवलित हो चुके हैं. जनवरी में ही नाला सूख जाता है. मार्च में धूल फांकने लगता है. कुओं का तो कोई अता-पता ही नहीं रहा. छोटी महानदी जैसी बलुआ चट्टानों को घिस घिस कर बालू बनानेवाली नदी की धार जनवरी से ही दुबराने लगती है….. जे सी बी के पंजे उसकी देह को घाट-औघट फाड़ रहे हैं.रेत माफिया अपनी धन पिपासा मिटाने में व्यस्त है.
सत्ता सियासत पद मद में अंधी हो चुकी है. सियासत के ऊंचे महानगरों की बजबजाती नालियां अब छोटे शहर,कस्बों, गांवों में खुलकर गंदगी बहा रही हैं.सड़न और बदबू से सबके दिमाग भर रहे हैं.साफ-सुथरी सोच समझ का आदमी इस गन्द में उतर हI नहीँ सकता. जाति-भेद,अस्पृश्यता,ऊंच नीच की संकीर्ण सोच ने इस देश को कितना पीछे कर दिया है.वही जाति आज के लोकतंत्र,जनमत,चुनाव,शिक्षा,रोजगार का आधार बनी हुयी है.ब्राह्मणवाद की मनः दुष्प्रवृत्ति आज जातियों वर्गों के भीतर भी भरी हुई है.यह श्रेष्ठताबोध ही सारी टूट-फूट की वजह है. समता, सहभाव का निरन्तर कमतर होते जाना सामाजिक विघटन को बढ़ाता है
कांक्रीट के जंगल सघन हो रहे हैं आसमान से अब पानी कम ताप ज़्यादा बरसता है.हवाओं के परों पर सवार अफवाहें पूरे देश में ,विद्वेष और शक,शुबहा का ज़हर फैला रही हैं .बर्बर,ह्र्दयहीन अतीत को लौटाने की कुचेष्टाओं के सापेक्ष किसी गांधी,सुभाष,आज़ाद,भगतसिंह को भी लौटाने के प्रयास क्यों नहीं कर पा रहे हैं…….गोडसे के भूत की वापसी में ही गांधी की वापसी भी होनी अत्यावश्यक है. टुकड़ों में लौटता भूत बहुत कष्टदायी है,उसे अपनी समग्रता में ही लौटना होगा…….
सुनता था ‘भूत के पांव उल्टे होते हैं’ ….शायद ठीक ही कहते थे लोग.अपने मौजूदा ‘आज’ में ‘भूत ‘ की स्मृतियों का लौटना ही भूत के उल्टे पांव होना है……
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1315,साईपुरम कॉलोनी, रोशननगर,कटनी,पोस्ट-कटनी,म.प्र.483501,आत्मालाप