आज सारे संसार के सामने कोरोना महामारी का प्रकोप पांव पसार खडा़ है, मानव को झंकजोर कर रख दिया है.एक दूसरे की संवेदना शून्य सी जान पडती है. विश्व की सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक ढांचे में अचानक बदलाव आया है, इन सब का शिकार मजदूर वर्ग हुआ है. भारत में प्रवासी मजदूरों के साथ एक राज्य ने दूसरे राज्य के साथ जो व्यवहार किया है, वह भयावह रुप है.शहर से अपने पितामह के घर पहुचे पहुंचे ग्रीष्म ऋतु से वर्षा ऋतु तक का हम सफर रहा है.रास्ते चलते जिस माँ ने अपने नवजात शिशु को जन्म देते ही मीलों दूरी तय की हो, ऐसी माँ को सलाम, जब वह घर पहुची होगी तब दरवाजे पर घड़ी भर खुब रोयी होगी, घर खण्ड पडा है, ऊपर से बादल मेहरबान है.वहाँ एक रात नही महिने गुजारने है, ऊपर खुला आसमान नीचे पैरों में बहता पानी.इन दोनों पाटों के बीच पिसता मेरे देश का मजदूर, मेरे देश के आर्थिक ढाचे की नीव. इन मजदरो के सामने कई सारे सवाल है- रोटी, कपडा, मकान और बच्चों की शिक्षा. बरसात आरंभ हो गयी है घर कच्चा और खण्डहर है उसमें बिमार बूढ़े माँ -बाप श्य्या पर लेटे है.छत टपकती है, बच्चे माँ की छाती से लिपटकर रात गुजार समय,हवाओं के चलते दीवार में ही समा जाएगें.भूखमरी की मार झेलते झेलते यूँ ही हिन्दुस्तान की मिट्टी में मिल जायेगें. रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति आज साकार हो उठी है- ‘ श्वानो को मिलता दूध भात भूखे बच्चे अकुलाते हैं, माँ की हड्डी से ठिठुर चिपक जाड़े की रात बिताते है.’ये मजदूर अपने आप को कोसते हुए कहते हैं- ‘धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध, धिक् साधन जिसकें लिए सदा ही किया शोध.’ जिन कलकारखानो में अपनी कई पीढियों को खफा दिया फिर भी मजदूर का मजदूर ही रह गया.आज उसके सामने खेती के अलावा ओर कोई रोजगार नहीं बचा है, देश के हालात सामान्य होते होते नया साल आ जाएगा, राजनैतिक दलों को भी ऐसे वक्त में तू तू मै मैं की जगह मिलकर काम करना चाहिए, आज हमें एक बार जागना है शून्य होती संवेदना में मानवीय मूल्यों का संचार करना है.इस भयानक विपदा में भी मजदूर की जो जीने की जिजीविषा उसे जीवित रखना है..
गोवर्धन लाल डांगी शोधार्थी