एक दिन सभी महिलाओं के आत्मसम्मान एवं भावनाओं ने बैठक रखी। दूर एक निर्जन पहाड़ी की चोटी पर, जहाँ कोई मनुष्यरूपी प्राणी नहीं पहुंच पाता, सभी मिले। उनका साथ देने के लिए कल-कल बहती नदियां, ऊँची पहाडियाँ, आकाश में उड़ते पंछी थे। उनका हौसला बढ़ाने के लिए सूरज भी चमक रहा था और बादल भी चहलकदमी कर रहे थे। हवा के वेग से सांय-सांय कर वृक्ष भी इधर उधर झुक रहे थे मानो कह रहे हों कि कर दो बयां वो दर्द जो भीतर ही भीतर तुम्हें पीड़ा दे रहा है।
सभी महिलाओं के आत्मसम्मान और भावनाएं ने मिलते ही एक दूसरे से गले लिपटकर रोना प्रारंभ कर दिया। ऑसू इतने रिसे मानो छोटी नदी सी बह निकली हो। और फिर सबने बैठक शुरू की। अपने दुख बयां करने प्रारंभ किए।
प्रारम्भ हुआ बालात्कार की शिकार एक मॉडर्न कपड़े पहनने वाली लड़की के सम्मान से। रोते बिलखते वो बोला “क्या कुसूर था मेरा जो उन चार लड़कों ने मेरा रेप कर यूं ही सड़क पर छोड़ा, मेरा तन नोच खसोंट कर, यूं ही नग्न फेंक दिया।”
भावनाएं भी बोली “जरा तरस न आया उनको, सोचा न कि हम भी तो महिलाएं हैं, लाज है किसी के परिवार की।”
परन्तु वहां न जाने कैसे सभी के मस्तिष्क भी आ पहुंचे,
शायद भावनाओं ने आत्मसम्मान से छिपकर उन्हें खबर दी होगी।
मस्तिष्क ने उत्तर दिया, “तुम्हारा झलकता शरीर उनके मुंह में पानी ले आता था।”
सूट पहने एक लड़की के आत्मसम्मान ने पूछा “तो बताओ मेरी क्या गलती थी? मेरा तो पूरा बदन ढ़का हुआ था?”
भावनाओं ने प्रश्न किया “क्यों हरदम मैं ही सहती?”
मस्तिष्क ने उत्तर दिया “सूट में से झलकते तुम्हारे ये गठीले उभार उनको लालायित करते थे। तुमने क्यों न ढीले कपड़े पहने?”
दस बरस की स्कूल जाने वाली लड़की के आत्मसम्मान ने पूछा, “मेरे पास तो न उभार है न मैं छोटे कपड़े पहनती हूं, फिर क्यों मेरे साथ यह नृशंस कार्य हुआ?”
भावनाओं ने दुखी होकर पूछा “पढ़ लिखकर कुछ बनना चाहती थी, नाम सबका रौशन करना चाहती फिर मेरे साथ ही यह सब क्यों हुआ?”
मस्तिष्क ने फिर उत्तर दिया “तुम स्कूल पढ़ने जाती थी यही तुम्हारी गलती थी अगर घर रहती तो सुरक्षित रहती।”
बहुत देर से शांत खड़ी सब सुनती छः माह की बच्ची का आत्मसम्मान बोल उठा “तो यह बताओ किस कारण मुझे यह पीड़ा झेलनी पड़ी?
रोते हुए भावनाएं बोलीं “क्या लड़की के रूप में जन्म लेना वाकई में एक अपराध है और अगर है भी तो इसकी इतनी नृशंस सजा क्यों?
और फिर चारों तरफ सन्नाटा छा गया। मस्तिष्क भी तर्कविहीन हो एक शब्द भी कह न पाया।
फिर उठा एक मुद्दा नया।
नौकरीपेशा महिला के आत्मसम्मान ने कहा “नौकरी
करती हूं तो क्यों लोग मुझे गलत मानते हैं? माना कि बाहर रहती हूं तो क्यों वो कैरेक्टर को दागदार बताते हैं?”
भावनाएं बस रो रही थीं।
पूरा दिन घर संभालने वाली गृहणी के आत्मसममान ने कहा, “गलत तो मेरे साथ भी होता है। ताना सुनती हूँ प्रतिदिन कि पूरे दिन घर पर रहकर करती ही क्या हो?
इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता क्योंकि मेरा कोई काम किसी को दिखता नहीं।”
भावनाएं बस रो रही थीं।
कोख में पलती बच्ची की भावनाएं बोली “क्यों मुझे लड़की जान कोख में ही खत्म कर देते है? न जाने मुझे यह दुनिया क्यों नहीं देखने देते हैं? लेकिन फिर अपने बेटे के लिए एक सर्वगुण सम्पन्न बहु चाहते है?”
आत्मसम्मान भी दुखी था क्योंकि हो तो रहा गलत ही था।
सांवले रंग की लड़की का आत्मसम्मान बोला, “मेरा रंग क्यों मेरे गुणों को छिपा देता है? मै काली हूं बस इसीलिए मुझे कुरूप की श्रेणी में ला देता है।”
भावनाएं बोली “क्या रंग रूप ही सबकुछ है, सीरत का कोई मोल क्यों नहीं?”
नई ब्याहता स्त्री का आत्मसम्मान ने पूछा “क्यूं मुझे इंसान न समझ ऐसा रोबोट समझा जाता है जिसे गलती कर सकने की अनुमति नहीं? एक छोटी सी गलती को एक बड़े बवंडर की तरह पूरे परिवार में उछाल मुझे नीचा दिखाया जाता है? क्यों मेरी अच्छाइयों को भूल, कुरेद कुरेद कर मुझमें कमियां ढूढ़ी जाती है?”
भावनाएं बोली “अपनी बेटी के लिए सभी सुखों की चाह रखने वाले क्यों बहु को अनाथ मान उसे तड़पाते हैं? क्या शादी का मतलब यह है कि वो इंसान ही नहीं रही?”
एक एसिड पीड़ित स्त्री की भावनाओं ने बोला ” मेरी बस यही गलती थी कि मैं उस शख्स से प्यार नहीं करती थीं, तो उसने मेरी न सुनकर मुझपर एसिड डाल दिया। और एसिड से जला चेहरा देखकर समाज ने मुझे कुरूप कहकर बहिष्कृत कर दिया।”
भावनाएं रो रही थीं और मस्तिष्क के पास अब किसी भी विषय में कोई तर्क नहीं बचा था। वो भी उनके गम में आसुओं से भीग चुका था।
तलाकशुदा स्त्री के आत्मसम्मान ने पूछा, “मेरा पति अत्याचारी था, अपने जीवन की कीमत समझ ,अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए तलाक देकर क्या गलती की जो समाज मेरे दामन को दागदार बताता है?”
विधवा से पुनः ब्याहता बनी स्त्री के आत्मसम्मान ने पूछा, “मेरी गलती बताओ कि मेरा पति शादी के कुछ माह पश्चात ही कार एक्सीडेंट में गुज़र गया, शराब उसने पी और अभागिन मुझे कहा गया। सारा जीवन निरीह अकेले कैसे बिता पाती, दूसरी शादी कर मां बनने का चरमसुख उठा क्या गलती की मैंने जो मुझे कुलटा कहा गया? मैं अगर सावित्री जैसे यमराज से लड़ अपने पति के प्राण वापस ला पाती तो अवश्य ही ले आती। किन्तु मैं तो बस
कलयुग में जन्मी एक साधारण नारी हूं। न बन सकती मैं सती सी महान कि जीवित बैठ जाऊं पति की चिता पर।” वृद्धाश्रम में रहती बुजुर्ग स्त्री के आत्मसम्मान ने पूछा “जिन बच्चों को मैंने अपनी कोख मेें सींचा, अपना दुग्ध पिलाकर बड़ा किया, जो कभी मेरा हाथ पकड़े बिना चल नहीं सकते थे, आज क्यों मुझे वृद्धाश्रम में छोड़, प्रसन्न हैं? क्यों अंदाजा नहीं हैं उन्हें मेरे दुख का?”
और भी न जाने कितनी ही स्त्रियों के आत्मसम्मान और भावनाओं के करुणामय रूंदन से सारा परिवेश दुखमय हो गया।
आत्मसम्मान व भावनाओं ने साथ मिलकर मस्तिष्क से पूछा “क्यों हम स्त्रियों के आत्मसम्मान व भावनाओं को नोचा खसोटा जाता है? हम हंसे तो बहुत हंसती है रोए तो रोती रहती है पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है? इस समाज में हमारे लिए बस यही स्थान है। क्यों हमारी इच्छाओं को दरकिनार कर अपनी इच्छाओं को हम पर थोपा जाता है ? क्यों केवल हमारी गलतियों को गिन , अच्छाइयों को नजरअंदाज किया जाता है?”
तब मस्तिष्क ने उत्तर दिया “तुम सब स्त्रियां कुछ दिवसों के लिए अदृश्य हो जाओ, धरती पर तो रहो पर आंखों से ओझल हो जाओ। तड़पने दो सबको, खलने दो कमी तुम्हारी। न घर में पायल की छनक हो, न चूड़ियों की खनखन, मधुर आवाज में मन्दिर में प्रातः काल की आरती कौन करेगा? रसोई में भोजन मत पकने दो। फिर तुम्हारी कीमत समझ आएगी जब तुम्हारे बिन आंगन में किलकारी नहीं गूंजेगी, क्योंकि बिना कोख कहां जीवन संभव है?”
आत्मसमान तैयार थे चाहते थे सभी मनुष्य महिलाओं की कद्र समझें।
पर भावनाएं थोड़ी विचलित हुई, बोली, “परन्तु यह तो प्रकृति के विरुद्ध है और हम प्रकृति की ही अनमोल कृति होकर प्रकृति के विरुद्ध नहीं जा सकते।”
तब मस्तिष्क बोले “ठीक है कुछ समय के लिए भावनाओं को मुझे दे दो। मैं उनको तुम तक नहीं पहुंचने दूंगा और केवल आत्मसम्मान के संग जियो। सारी भावनाएं, आत्मसम्मान पर हावी हो जाती हैं। जब भावनाएं ही न होंगी तो आत्मसम्मान अपना हक जता लेगा, अपनी जगह बना लेगा।”
भावनाओं ने उत्तर दिया “यह संभव नहीं, हम अपने परिवार के अभाव में नहीं जी सकते। ऐसा जीवन भी किस काम का कि अपने प्रियजनों की ही आखें नम कर दें? स्त्री की भावनाएँ ही तो उसकी प्रमुख पहचान है, बिना भावनाओं के कैसे स्त्री नामक कृति संभव है?”
इतना कहते ही सभी की भावनाएं घर को चल दीं। और मजबूरन आत्मसम्मान भी मुंह लटकाए साथ चल दिए।
मस्तिष्क भी अजीब सी मुस्कान के साथ, साथ हो लिया क्योंकि वो जानता है कि थोड़े- थोड़े अंतराल पर यह बैठक सदैव होती रहती है और इसका अंत भी सदैव यही होता है।
स्वरचित, मौलिक, सर्वाधिकार सुरक्षित
इला सागर रस्तोगी