आज भारत में हिन्दी बोलने,लिखने तथा व्यवहारिक प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है फिर भी आज दुख इस बात का है कि सरकारी दफ्तरों में और न्यायालयों में अंग्रैजी का बोलबाला है । खुशी की बात ये है कि इलाहाबाद न्यायालय के कुछ जज हिदी में केस की सुनवाई के लिए तैयार हो गये है पर यह नकाफी है।
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सितंबर माह आते ही हर साल हिन्दी दिवस और पखवाड़ा मनाने की चहल पहल हर सरकारी दफ्तरों में शुरु हो जाती है औऱ हिन्दी दिवस के नाम पर करोड़ो रुपये पानी की तरह बहा दिया जाता है। चाहे वो राज्य की सरकारें हो या केन्द्र सरकार हो। हिन्दी को हमारे नेता राष्ट्रभाषा बनाने चाहते थे। गांधी जी ने सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था और ये भी कहा कहा था कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा, है जिसे जनभाषा बनाया जा सकता है। 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को भारतीय संविधान में जगह दी गई पर दक्षिण भारतीय एवं अन्य कई नेताओं के विरोध के कारण राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर सन 1953 में 14 सिंतबर से हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया। परन्तु सन 1956-57 में जब आन्ध्र प्रदेश को भाषायी आधार पर देश का पहला राज्य बनाया गया तभी से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की धार कुंद पड़ गई और इतनी कुंद हुई कि आज तक इसकी धार तेज नहीं हो सकी। औऱ राष्ट्रभाषा की बात राजभाषा की ओर उन्मुख हो कर रह गई है।आज हिन्दी हर सरकारी दफ्तरो में महज सितंबर माह की शोभा बन कर रह गई है। हिन्दी को व्यवहार में न कोई कर्मचारी अपनाना चाहता है और नाहीं कोई अधिकारी जब तक कि उसका गला इसके प्रयोग में न फंसा हो। हिन्दी के दशा एवं दिशा देने के लिए उच्चस्तर पर कुछ प्रयास भी हुए। इसके लिए कुछ फांट भी आये और इसके दोषों को सुधारा भी गया औऱ आज सारी दुनिया में अंग्रैजी की भांति हिन्दी के भी सर्वब्यापी फांट यूनीकोड आ गया है जो हर लिहाज से काफी सरल ,सुगम एवं प्रयोग करने में आसान भी है। सरकार हिन्दी के उत्थान हेतु कई नियम एवं अधिनियम बना चुकी है परन्तु अंग्रैजी हटाने के लिए सबसे बड़ी बाधा राज्य सरकारें है क्योकिं नियम में स्पष्ट वर्णन है कि जब तक भारत के समस्त राज्य अपने –अपने विधान सभाओं में एक विधेयक इसे हटाने के लिए पारित कर केन्द्र सरकार के पास नहीं भेज देती तब तक संसद कोई भी कानून इस विषय पर नहीं बना सकती है। ऐसे में अगर एक भी राज्य ऐसा नहीं करती है तो कुछ भी नहीं हो सकता है। नागालैण्ड एक छोटा –सा राज्य है जहां की सरकारी भाषा अंग्रेजी है। तो भला वो क्यों चाहेगा कि उसकी सता समाप्त हो। दूसरी ओर तामिलनाडू की सरकार एंव राजनीतिज्ञ भी हिन्दी के घोर विरोधी है औऱ नहीं चाहते की उन पर हिन्दी थोपी जाये जबकि वहां की अधिकांश जनता आसानी से हिन्दी बोलती एवं समझती है। आज भारत के राजनीतिज्ञों ने हिन्दी को कुर्सी से इस तरह जोड़ दिया है कि अब इसको राष्ट्रभाषा बनाने के सपने धूमिल हो गया हैं।आज हिन्दी विश्व पटल पर तो फैली है लेकिन भारत में ही उपेक्षित है । विदेशों में बाजारीकरण के कारण काफी लोकप्रिय हो गई है। कई देशों ने इसे स्वीकार किया है। कई विदेशी कंपनिया भी आज अपने उत्पादों के विज्ञापन हिन्दी में देने लगी है। इंटरनेट की कई सोशल सर्विस देने वाली साइटें मसलन-ट्वीटर ,फेसबूक,गूगल, वाट्स अप, टेलीग्राम,इस्टाग्राम आदि पर भी हिन्दी की उपलब्धता आसानी से देखी जा सकती है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए 10 जनवरी 1975 को नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित की गई थी जिसमें 30 देशों के 122 प्रतिनिधि भाग लिये थे। तब से लेकर अब तक देश दुनिया में 12 विश्व हिन्दी सम्मेलन इसके प्रचार-प्रसार के लिए आयोजित की जा चुकी है। इसी वर्ष 15-17 फरवरी तक फीजी के नांदी शहर में आयोजित की गई थी, जिसका थीम था-“हिंदी पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक” I हर साल 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस भी मनाते है। हिन्दी आज विश्व में लगभग 137 देशों में बोली जाती है। विश्व के प्रमूख 16 भाषाओं में 5 भारतीय भाषाएं शामिल है उनमें हिंदी भी एक है।
2001 की जनगणना के अनुसार भारत में हिंदी बोलने वाले 41.03 प्रतिशत थे। आज भारत में हिन्दी बोलने,लिखने तथा व्यवहारिक प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है फिर भी आज दुख इस बात का है कि सरकारी दफ्तरों में और न्यायालयों में अंग्रैजी का बोलबाला है । खुशी की बात ये है कि इलाहाबाद न्यायालय के कुछ जज हिदी में केस की सुनवाई के लिए तैयार हो गये है पर यह नकाफी है। इसलिए आज अपने ही देश में हिन्दी बे-हाल होते जा रही है। अतः आज जरुरी है कि सरकारी दफ्तरों में हिंदी का प्रयोग बढ़ाया जाये और इसे जन-जन की भाषा बनायी जाये तभी हिन्दी का सार्वांगिन विकास हो सकता है।
लेखक साहित्य टी.वी.के संपादक है।