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साहित्य की अदालत।
कचहरी मे रीमा सिंन्हाजी ने लगाई हाजिरी।।

साहित्य की अदालत। साहित्य की कचहरी। अब देना होगा जवाब ।साहित्यकारों को भी, क्या लिखते हैं? क्यों लिखते हैं ?क्या है उनकी समाज के प्रति जवाबदेही??
समाज के वर्तमान समय में साहित्य के प्रति अभिरुचि क्या है। आज के साहित्यकारों का रुझान कैसा होना चाहिए साहित्य के प्रति।
ऐसे ही कुछ ज्वलंत प्रश्नों को लेकर शुरू की गई है साहित्य की अदालत जिसमें साहित्य की श्रृंखला की अठारहवीं श्रृंखला में आमंत्रित किया गया था।
कटघरे में विशेष रूप से आदरणीय रीमा सिंन्हाजी कोजो की लखनऊ से साहित्य के कटघरे में शामिल हुई।
जज के रूप में आदरणीय विवेक कविश्वर दिल्ली से उपस्थित रहे।
ज्यूरी स्पेशल प्रश्न में अलका अग्रवाल जी ने आगरा से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
साहित्य की अदालत की कार्यवाही शुरू हुई। जिसमें परिचय के क्रम के बाद सवालों में जवाब की एक लंबी श्रृंखला शुरू हुई।
शुरुआत डॉक्टर अरुणा पाठक ने उनके बचपन से शुरू कर धीरे-धीरे साहित्य की यात्रा तक यह सवालों जवाब की श्रृंखला चलते हुए आगे बढ़ती गई। रीमा सिन्हा जी ने विनम्रता से सभी सवालों का जवाब दिया गया।
से कुछ तीखे और नुकीले सवाल भी पूछे गए।
की वर्तमान समय में साहित्यकारों का आचरण कैसा होना चाहिए।
क्या यह न्याय संगत है कि हम एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाए और साहित्य को नीचा गिराएं।
सभी प्रश्नों का आपने जवाब दिया।
अलका जी ने आपसे प्रश्न पूछा क्या भाईचारा के साथ आज संबंध निभाया जा सकता है।
और ज्ञान के तीखे प्रश्नों को भी आपने सुनकर सहजता से जवाब दिया।
कुछ सवालों में असहज होकर भीउत्तर बड़े ढंग से दिया। अपना जजमेंट देते हुए विवेक कविश्वर जी ने कहा।आज के साहित्यकारों के नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि अपने चारों ओरों के वातावरण को देखकर सामंजस्य बनाएं।
महिला साहित्यकार यदि काम करती है साहित्य के लिए तो उसे पर आक्षेप लगाना गलत है।
क्योंकि वह दोहरी जिम्मेदारी निभाकर अपने कार्य करती हैं जिसमें रीमा जी उसमें पूर्ण रूप से सफल है।
अंत में उन्हें सब अभियोग से मुक्त कर दिया गया।
और उनकी प्रशंसा करते हुए। साहित्य के साधना के लिए बहुत-बहुत बधाई दी गई।
वर्तमान समय पर साहित्य की अदालत इकलौता ऐसा कार्यक्रम है जो चाटुकारिता से मुक्त है और वाकई में समाज के लिए साहित्य की क्या भूमिका होना चाहिए दर्पण के रूप में यहां पर दिखाई देता है।

आज के ज्वलंत मुद्दों को लेकर साहित्य की अदालत और यह कचहरी लगाई जाती है।
बहुत-बहुत बधाई रीमा सिंन्हाजी और विवेक कविश्वर जी को।
ज्ञान जी के प्रश्नों से रोचकता का अनुभव होता है।
साथ -साथ ही साहित्य की मनोदशा क्या है? और कैसी होनी चाहिए उसका भी अनुमान होता है।
डॉ अरुणा पाठक का संचालन और संयोजन बहुत उत्तम होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है यह साहित्य की अदालत पूर्ण रूपेण सिद्ध करती है।
वर्तमान समय पर आवश्यकता है ऐसे कार्यक्रमों की जो समाज को सही दिशा और दशा बताएं।
आज के समय पर जैसे जरूरत है वैसे ही सुंदर शानदार कार्यक्रम के लिए ढेर सारी बधाई और यह अनवरत चलता रहे।
साभार।

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