किसी ने मुझे दरवाजे से आवाज दी, भीतर कोउ है का..? मैंने अंदर से ही पूछा कौन है भाई ? दरवाजे से फिर आवाज आई, हम हैं तुलसीदास। मैंने दरवाजा खोला और उनसे वहीं खड़े-खड़े पूछा क्या चाहिए ? वे बोले कुछ नहीं। मैंने फिर जिज्ञासा से पूछा तो क्या? वे बड़े ही कातर स्वर में बोले कुछ बात करनी है आपसे। उसकी आँखों की पीड़ा और स्नेही आग्रह को मैं मना नहीं कर सका। मैंने उन्हें भीतर बुलाया और बैठने के लिए कहा। वे बैठ गए और कुछ देर गौर से मुझे देखते रहे। फिर कुछ देर बाद उन्होंने कहना प्रारंभ किया। हम तुलसीदास हैं। मैंने कहा, हाँ आपने बताया अभी-अभी।
मैं, 14 वीं सदी में पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के यहाँ जन्मा था। मेरा नाता उस दौर के एक साहित्यिक परिवार से था। नंददास, मेरे सगे चचेरे भाई थे। नंददास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मणी मंगल, रास पंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली लिखी।
एक समय मेरी पत्नी रत्नावली की इस बात ने मुझे काफी बदल दिया। अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! / नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत? इसके बाद आदिकवि वाल्मीकि की रामायण से प्रेरित होकर मैंने अवधी भाषा में घूम-घूम कर लोगों को राम कथा सुनना शुरू किया। ठीक-ठीक वैसे ही जैसे आज-कल आपके यहाँ तथाकथित कथा वाचक हैं। गीता के, रामायण के, राम के, कृष्ण के, शिव के आदि-आदि। तू हो जानते ही हो कि कथा का मतलब कहानी। असल में जीवनयापन के लिए कुछ-ना-कुछ तो करना ही होता है। मैंने भी वही किया और उसी में रम गया। भक्ति भाव बढ़ा और धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा। इस बीच मैं काशी आ गया। काशी जो कि प्राचीन नगरी थी और अच्छे-अच्छे यहाँ आते थे। हमारे दौर के कबीर, रैदास आदि बड़े-बड़े दिग्गज लोग यहाँ आते थे लोगों की बातें सुनते थे, उनका जीवन देखते थे, लोगों को अपने अनुभव बताते थे और लिख भी लेते थे। इसी प्रकार मैंने रामचरित मानस ग्रंथ की रचना की। मुझे तो सुनने में आया था कि कुछ लोगों ने निजी स्वार्थों के चलते मेरे मूल मानस को गंगा मैया में बहा दिया था बाद में नया बनाए। खैर, अब उस विवाद का कोई मतलब नहीं रहा गया है। जो वर्तमान है बस वही है। जो मैं बात कर रहा हूँ यह वही दौर की है जिसे आप लोगों ने भक्ति काल कहा है, जिसमें मैं हूँ, कबीरदास है, सूरदास है और मलिक मोहम्मद जायसी है और भी बहुतेरे थे जैसे परमानंददास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीम दास आदि । लेकिन आप लोगों ने केवल हम चारों को ही ज्यादा तवज्जो दी, उसके लिए शुक्रिया। काम हम सभी का एक जैसा ही था प्रभु सेवा, सुमिरन, भजन, कीर्तन आदि। भाई उस दौर में आप लोगों की तरह सोशल मीडिया आदि तो था नहीं ना हमारे पास, अस्त-व्यस्त रहने के लिए। आज तो देखो ना सब बदल गया है। क्रांतिकारी हमारे दौर में भी थे कबीर क्रांतिकारी ही तो थे पर औछे भव के नहीं थे। वे निर्गुण उपासक थे, हम सगुण उपासक थे, बस इतनी-सी तो बात थी।
इस बीच मैंने उनसे पूछा आप क्या लेंगे। उन्होंने कहा पानी पिला दो बस। मैं दो गिलास पानी ले आया और उनके पास बैठ गया। उन्होंने इत्मीनान से एक गिलास पानी पिया और फिर कहने लगे। तोहार पास आने का उद्देश्य इतना भर है। आजकल लोग मेरी किताब की पंक्तियों और कुछ-कुछ शब्दों को लेकर आपस में भिड़ने को उतारू हो रहे हैं। सच कहूँ मैं बहुत दुःख होता है। तुम तो जानते ही हो अर्थ का अनर्थ भी किया जा सकता है और अपनी सुविधानुसार मतलब भी निकल लिए जाते हैं। समय गतिशील है और हमें समय को पड़कर चलना चाहिए। मैं मानता हूँ कि इतिहास जरूरी है और उसे किसी भी कीमत पर बदला नहीं जा सकता। और चीजों को समझने के लिए भरपूर अध्ययन भी जरूरी है, नहीं तो फिर वही बात होती है अधजल गगरी छलकत जाए।
उसने दूसरे गिलास से पानी का लम्बा घूंट भरते हुए कहा मानस के आलावा मेरी और भी रचनाएं हैं जैसे – गीतावली, कृष्ण-गीतावली, पार्वती-मंगल, विनय-पत्रिका, जानकी-मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमान बाहुक लेकिन जो सबसे ज्यादा चली वो रामचरित मानस ही रही। वो आजकल आप लोग बोलते हो ना, जिस कृति को बड़ा पुरस्कार मिलता है साहित्य अकादमी वगैरह-वगैरह। इसे कुछ-कुछ वैसा ही समझो। यह देश भावनाओं का देश है यहाँ के लोगों का मुझे और मेरी मानस को भरपूर प्यार मिला। कुछ लोगों ने इसे अपनी रोजी-रोटी का जरिया तक भी बनाया लिया। भला इसमें मैं क्या कर सकता हूँ भाई। मैं तो अपने समय का चितेरा था जो देखा और जितना समझ में आया लिख दिया। खैर, अब मुद्दे की बात पर आता हूँ नहीं तो आप कहेंगे खामखाँ आपका समय जाया कर रहा हूँ। मैं बस आपके माध्यम से यही कहना चाहता हूँ लोग मेरी बातों को ग्रहण करें तोड़े-मरोड़े नहीं। जो समझ में आ जाये उसे समझ लें जो ना आये उसे छोड़ दें। सारी जिम्मेदारी मैंने ही थोड़े ही ले ली है। और दूसरा मेरे कंधे पर पाँव रख कर और मानस को कलंकित करके अपने निजी स्वार्थों को ना साधे। चुनाव अपने अच्छे कार्यों के बल पर लड़ें मुझे बीच में ना घसीटें बस। इसे मेरी नसीहत समझा जाए।
अच्छा, अब चलता हूँ फिर मिलेंगे। हाँ, एक बात और आपके यहाँ का पानी बड़ा स्वाद है।
– डॉ. मनोज कुमार