प्राचीन भारतीय संस्कृति मूलतः अध्यात्मिक विकास पर आधारितएक विशेष सामाजिक वैविध्य
को परिलक्षित करनेवाली संरचना थी। यह कोई निकट अतीतकी नहीं, वरन हजारों हजार वर्ष की सचेत मानसिकता के द्वारा संरचित हुई थी। अगर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो आज भी इसकी प्रासंगिकतासे इन्कार नहीं किया जा सकता।बहुत संभव है कि भविष्य भी इसकी सार्थकता को अस्वीकार नहीं करे। इसे कभी जातिवादी अथवा मनुवादी व्यवस्था कहकर तिरस्कार करते हैं , इसकी तह तक जाने की चेष्टा नहीं करते।
महान जलप्रवाहके पश्चात जीवित रहनेवाले मनुने भौतिकवादी मानवता को अपने अध्यात्मिक शीर्ष से पतनोन्मुख देखकर उन्हें पुनर्जागृत करने हेतु एक सामाजिक व्यवस्था की नींव डालीथी,। मनुष्य की अपनी प्रकृति केआधार पर उसके चार लक्ष्यों को पहचाना और तत्सम्बन्धी चार वर्ग बनाएथे।ये समाज के चार स्तम्भ बने।
वर्ण का एक अन्य अर्थ रंग भी है।उन चार वर्गों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के आन्तरिक प्रकृतिजन्य स्म्बन्ध भी इन रंगो से माना जा सकता है।ये रँग गोरी, काली, भूरी त्वचा से अर्थ नहीं रखतेवरन् गुण विशेष अथवा प्रकृति विशेषसे उसका तात्पर्य होता है।मनुव्वस्था के अन्तर्गत आए चार वर्णों ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र को उनके गुणविशेष से इन प्राकृतिक रंगों के गुण विशेषअथवा शक्तिविशेष को जोड़कर देखने की कोशिश की गयी है।वेदों में चार प्रकार की ऊर्जा को सफेद ,लाल पीला,और काले रंग से जोड़कर ऐसे उर्जावान वर्गों को उस वर्णसे अभिहित किया गया है।वर्णों से ऐसा साम्य स्थापित करना वैदिक ऋषियों अथवा कवियों के लिये साम्य पर आधारित सहज कल्पना थी ।
इसे इसप्रकार समझने की चेष्टा करते हैं कि–
सफेद रंग सत्वगुण का प्रतीक है।स्पष्टता, शुद्धता, प्रेम विश्वास और अनासक्ति का प्रतीक है।यह रंगहीन है।इसपर कोई वैश्विक रंग अथवा प्रलोभन नहीं चढ़ता। ऐसे प्रलोभन से दूर अनासक्त ,,ब्रह्मज्ञान प्राप्त, सत्वगुणयुक्त ,महत शुद्ध आत्मशक्ति युक्त जो हैउसे ही ब्राह्मण की संज्ञा दी जा सकती है।
लाल रंग ,रजस का प्रतीक है।ययह क्रिया- शक्ति , इच्छा, और प्राप्ति के लिए संघर्ष में रत मनुष्यों का प्रतीक है।यह राजन्य वर्गऔर शक्तियुक्त सैन्य बल का भी प्रतीक है।इन अर्थों में यह रंग क्षत्रिय वर्ग या वर्ण की ओर संकेत करता है।
पीला वर्ण या रंग भी एक अन्य श्रेणी के रजस का ही प्रतीक है।धन संचय का कार्य ,सामाजिक सम्बन्धों के लिए भ्रमणशीलता, वस्तुओं के आदान प्रदान ,वाणिज्य-व्यापार, और दूत कार्य आदि विश् के अन्य समस्त कार्य इस रंग के द्वारा वैश्य वर्ग की ओर संकेत करते हैं।
काला रंग तमस का प्रतीक है। यह अज्ञानता और बुद्धिहीनता का प्रतीक है। कोई बौद्धिक कार्य नही करने योग्य होने के कारण समाज के सेवक वर्ग के रूप मेंइनकी पहचान की गयी और इन्हें शूद्र वर्ण से अभिहित किया गया।
ये चार सामाजिक शक्तियाँ हैं जो मनुष्य की प्रकृतिप्रदत्त विशेषताएँ हैं जिनपर आधारित चार वर्णों की कल्पना की गई।ये चार प्रकार की क्रियाएँ हैं जो मनुष्य से सभी स्थानों और सभी कालों मे अलग अलग ढंग से की जाती हैं।ये प्रकृतिप्रदत्त सामाजिक कार्यकलाप हमारे अन्तर के मूल्यों सेभी जुड़े हैं।हालाँकि परिवार और जन्म किसी वर्ण के होने के निर्णायक तत्व हो सकते हैं पर मेरे विचारों से यह पूर्णतः सही नहीं है।वे अपने कार्यकलापों एवम्अपनी प्रकृति के आधार पर ही किसी विशेष वर्ण के अन्तर्गत आ सकते हैं।वैदिक काल में विश्वामित्र और परशुराम सरीखे स्पष्ट उदाहरण मिलते हैं।यह सामाजिक व्वस्था सबों को अपनी इच्छा और योग्यता के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देतीथी।
अध्यात्मिक ज्ञान से युक्त व्यक्ति समाज की इन चारों व्यवस्थाओं को समझता है क्योंकि अपने स्वयं के व्यक्तित्व में इन चारों काअस्तित्व वह देख सकता हैऔर इनमें से किसी से भी अपने को जोड़ सकता है।
वह श्रम क्रिया के रूप मेंअपने पैरों को, व्यापारक्रिया के अपने उदर के रूप में शक्ति औरकुलीनताको अपने बाहुओं मे, औरज्ञान और बुद्धिअथवा ब्राह्मणत्व को अपने मस्तिष्क के रूप में सरलता से समझ सकता है।अगर सम्पूर्ण समाज को एक व्यक्ति के रूप में देखते हुए उसका मानवीकरण किया जाय तो उसके विकास के लिएकाम करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति इनमे से ही किसी वर्ग से जुड़ा होगा। यही बात एक देश अथवा राष्ट्र के सम्बन्ध मे भी कही जा सकती है।
किन्तु यह व्यवस्था भी कुछ हजार वर्षों के पश्चात जन्म आधारित जाति व्यवस्था मे परिवर्तित हो गयीथी जो समस्त समस्याओं की जड़ बनी।
आरम्भ में वर्णों का यह विभाजनजहाँ व्यक्तिगत लक्ष्यों पर आधारित था वहींइसकी धार्मिक और अध्यात्मिक पृष्टभूमि भी थी।समाज में समरसता स्थापित करना इसका उद्येश्य था।वे एक दूसरे के कल्याण के लिए आपस में बँधे हुएथे।मानव स्वभाव की प्रकृतिगत विकृति ही पृथकता केमूल में थी, पर एक सामान्य उद्येश्य भी था जो उन्हें एक दूसरे से जोड़े रखता था।हाँ, अपनी योग्यतानुसार अपना जीवन निर्वाह भी उनका एक बड़ा उद्येश्य था।किन्तु, समाज की अध्यात्मिक प्रगति सर्वप्रथमऔर सबसे बड़ा उद्येश्य होता था।
व्यापारीगणअथवा वैश्य, जो समाज का बहुत बड़ा वर्ग होता था, वे अपनी आय का कुछ हिस्सा निम्नवर्गीय समुदाय केलिए और कुछ मंदिर आदि संस्थाओं के लिए रखते थे।इस प्रकार वे दोनों वर्गों से जुड़े रहते थे।क्षत्रिय समाज भी सम्पूर्ण समाज की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध थे।पुरोहित वर्ग भीअपनी शिक्षाओं, बनाए गये नियमों उपनियमों से सम्पूर्ण समाज में एकरूपता बनाए रखते थै।
वस्तुत हमारी जीवनदृष्टि हीहमारे लक्ष्यों को निर्धारित करती है।और इस जीवनदृष्टि के निर्माण में हमारे मूल्यों का सर्वाधिक योगदान है।।ये हमारी दृष्टि के रंग बदलते हैं। व्यापारीवर्ग सम्पूर्ण जीवन को खरीद फरोख्त केरूप में देखते हैं। वही उनका लक्ष्य है।राजनयिकदृष्टि वाले लोग दुनिया को राजनीतिक शक्ति निज के प्रभुत्व अथवा राष्ट्रीय पहचान की दृष्टि से देखते हैं।अगर हमारा लक्ष्य ज्ञान है तो हम अपने मस्तिष्क से ही हर प्रकार का आनन्द लेते रहेंगे। इसी प्रकार एक बाकी सबों केहितों के लिए काम करनेवाले श्रमिक , मजदूर अथवा किसी भी प्रकार की सेवाकरनेवाला वर्ग भी।
तात्पर्य यह किआज भी इन्ही चार लक्ष्यों पर विश्व जीवन आधारित है।ये अस्थायीलक्ष्य हैं जो विश्वजीवन में मृत्युपर्यन्त ही आनन्द देते हैं, सनातन आनन्द नहीं। फिर भी सामाजिक जीवन जीने के लिए आज भी इनकी उसी तरह उपयोगिता है जैसी पूर्व में थी।आज भी ये सारे वर्ग वर्तमान हैंऔर आवश्यकतानुसार आज भी वेउस पुरानी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, कही अपनी प्रवृतियों के आधार पर तो कहीं जन्मजात आधार पर। आवश्यकता मात्र इस बात की है कि जन्मजात आधार पर इनकी मूल प्रवृतियों की बलि होने से हम रोकें। समाज में ये वर्ग अपनी योग्यता के बलपर जाने जाएँ न कि जन्म के आधार पर। अपनी बुद्धि कौशल अध्यात्म प्रेम के बल पर कोई किसी भी वर्ग का व्यक्ति ब्रह्मज्ञान का अधिकारी हो सकता है।चिन्तन का यह विशुद्ध स्वरूप देश मे वर्णव्यवस्था का एक स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत कर तत्सम्बन्धित विवादों को समाप्त कर सकता है।
आशा सहाय