: पंकज कुमार मिश्रा, राजनीतिक विश्लेषक / पत्रकार जौनपुर, यूपी
रणदीप हुड्डा नें स्वातंत्र वीर सावरकर फ़िल्म में वीर सावरकर के किरदार में ऐसे लगे है कि भविष्य में उनके मूवी के फोटो को असली सावरकर के लिये भी उपयोग किया जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बधाई के पात्र है रणदीप हुड्डा। हुड्डा की एक्टिंग ने एक महानायक के जीवन को जीवंत कर दिया है। वैसे तो इस देश मे न्याय न सुभाष चन्द्र को मिला,न भगतसिंह को,न ही खुदीराम बोस को और न ही वो सम्मान मदनलाल ढिंगरा को मिला । इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने वालों नें केवल एक खानदान को ही प्रमोट किया जबकि आज भी ये वीर उपेक्षित है। जो गरमदल के नेता थे जिन्होंने फांसी चुनी या अंग्रेजों द्वारा सताये गए वो इतिहास से एक एजेंडे के तहत गायब कर दिए गए । वीर सावरकर भी उन्ही में से एक थे पर उन पर फिल्म नें आँखे खोल दी। फ़िल्म के तीन घंटे में सब कुछ बटोरने की कोशिश कि गई है लेकिन उनका जीवन भारत माता के प्रति इतना समर्पित था कि लगता है अभी कितना कुछ और दिखाया जा सकता था। उन्हें तीन यूनिवर्सिटी से डि.लिट की उपाधि मिली थी और जिन्होंने विदेश में नौकरी की जगह स्वतंत्रता आंदोलन और काला पानी चुना। हिन्दू संगठन का जो विचार उन्होंने दिया,संघ की शुरूआत उन्ही के तर्कवाद पर हुआ पर उनके विचारों का प्रभाव उनके तर्कवादी सिद्धांत, सहभोज और दलित उद्धार के लिए किया गए कार्य, गोमान्तक किताब में सबसे पहले गोवा की आजादी की बात करना, अली बंधु और वीर सावरकर की ऐतिहासिक बहस, ऐसे अनेक विषय है जो समय की कमी के कारण फ़िल्म में नहीं छूए गए। लेकिन जिस गंभीरता से फिल्म बनाई है और जो छोटे अप्रत्यक्ष मैसेज दिए गए हैं वह लाजवाब और विचारणीय है। सावरकर का परिवार जब एक एक पाई का मोहताज था तब गांधीजी और अन्य विदेश में पढ़े भारतीय बैरिस्टर बड़ी गाड़ी में घूम रहे थे। कई लोगों को फिल्म कई बार देखने के बाद ही समझ आएगी। पर्दे पर पहली बार,चाफेकर बंधुओं,खुदीराम बोस,विष्णु अनंत कान्हेरे, और मदन लाल ढींगरा चरित्र भूमिका में देखना बहुत सुखद है। यह फिल्म सिर्फ सावरकर की जीवनी नहीं है।फिल्म भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों को सच्ची श्रद्धांजलि है।
यह वीर सावरकर फिल्म देखने के बाद आपको पता लगेगा कि सौ वर्ष पहले काला पानी के नर्क में पठान वार्डन अंग्रेजों के साथ मिलकर हिन्दू सिख क्रांतिकारियों का उत्पीडन कर रहे थे । धर्मांतरण करा रहे थे। और आज ठीक सौ साल बाद कांग्रेसी विचारधारा गैर हिन्दुओं के साथ मिलकर वीर सावरकर और काला पानी के अमानवीय अत्याचार का मजाक उड़ा रहे जो नींदनीय है। फ़िल्म के लिए एक दर्शक के तौर पर जो परिपक्वता चाहिए वो हम में अभी तक है ही नहीं पर फ़िल्म में अभिनय के रूप से जो सन्देश दिये गये हैं उनको डीकोड करना और समझना हर किसी के बस की बात नहीं है। वैसे रणदीप हुड्डा नें अभिनय और संजीदगी से बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में तथ्यों का ऐसा कस के तमाचा मार डाला है जिसको झेलना सावरकर के विरोधियों के वश की बात भी नहीं है ! फ़िल्म देखते हुए आपको टाइम ट्रैवल का सा अनुभव होता है और आप सौ साल पीछे का जीवन स्वयं जीने लगते हैं। पूरी फ़िल्म में कहीं पर भी रणदीप हुडा नहीं बल्कि पर्दे पर और सिनेमाघर की सीटों पर बैठा हर व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ सावरकर ही नज़र आता है। कुछ समय बाद आप भी एक दर्शक ना होकर स्वयं को अंग्रेजो के सामने खुद को वीर सावरकर पाते है। अखण्ड भारत के जिस सपने को हमारे पूर्वजों ने देखा था उसके तो आजतक आसपास भी नहीं पहुँच पाये हम लोग। 1857 की क्रान्ति के बाद बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ है जिसकी परतें उधेड़ती हुई यह फ़िल्म इतनी यथार्थात्मक बनी है कि आपके सामने ऐसे ऐसे नामों की सच्चाई पेश करती है जिनके बारे में आपने सुना तक नहीं होगा या फिर सुना भी यदा कदा था परन्तु देश के लिए उनके योगदान के बारे में आप अनभिज्ञ थे। आरम्भ के कुछ मिनटों तक धीमी चलती हुई फ़िल्म मध्यान्तर तक पहुँचते पहुँचते, जानकारियों और मार्मिकता का वो पुलिंदा खोलती है कि इण्टरबल ब्रेक भी अखरने लगता है और मन करता है कि यह फ़िल्म बस यूँ ही चलती ही रहे। किस प्रकार अंग्रेजों ने हम भारतीयों की सबसे नाज़ुक नस जाति और धर्म को पकड़ा और भारतीयों की नसों में ज़हर के बीज बोने शुरू किए। कैसे धीरे-धीरे इस ज़हर को नासूर बना कर अखण्ड भारत के टुकड़े किए गए।कैसे हमारे-आपके द्वारा चुने गये तत्कालीन नेताओं ने अंग्रेजों के हाथों बिक कर अपनी अपनी कुर्सी के लिए देश के साथ और आपके साथ छल किया उस का इतना सटीक और तथ्यों के साथ चित्रण किया गया है कि आप अचम्भित रह जाते हैं और सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि किस बेशर्मी से हमारे असली नायकों को भुला कर हम पर इतिहास बदल कर फ़र्ज़ी नायक थोपे गये। फ़िल्म के डायलॉग शानदार हैं और कई बार फ़िल्म के दौरान रोंगटे खड़े कर देते हैं। बैकग्राउंड संगीत किसी हॉलीवुड की फ़िल्म के स्तर का सा प्रतीत होता है। फ़िल्म की थीम बेहद गम्भीर है और यदि मनोरंजन की दृष्टि से देखेंगे तो थोड़ी बोर लग सकती है परन्तु जानकारी के दृष्टिकोण से फ़िल्म बेहद उम्दा है। इसका उद्देश्य मनोरंजन करना नहीं बल्कि यथार्थ से परिचय करवाना है । ये देश अपने हर उस क्रांतिकारी को सदा नमन करेगा जिसने थोड़ी सी भी आहुति आजादी के संग्राम में दी है। स्मरण रहे वो वीर सावरकर ही थे जिन्होंने मुश्लीम लीग के सामने हिन्दू महासभा खड़ी की ताकि कांग्रेसी सेक्युरिज्म में हिन्दुओ के हक न छीने। सावरकर ने तो पूरा परिवार और जीवन ही हिन्दुओं के लिए झोक दिया।