श्रीमती कविता मल्होत्रा
वसुदेव कुटुंब आज अपनी ही नाफ़रमानियों के कारण ख़तरे में है।कितनी अज़ीज़ रही होगी परम पिता को उसके अँश की हर एक प्रजाति जिसे उन्होंने एक उद्देश्य पूर्ण यात्रा के लिए धरती पर भेजा।
प्रकृति समूची मानव जाति को निस्वार्थ सेवा का संदेश देती है लेकिन मानव औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करके प्राकृतिक संसाधनों का ही व्यापार करने लगा।पानी जैसी प्राथमिक ज़रूरत को ही बोतलों में बँद करके अपने अपने नाम के ठप्पे लगा देने मात्र से निजीकरण तो कर लिया गया लेकिन मानव ये भूल बैठा कि पृथ्वी पर उपलब्ध हर एक प्राकृतिक संसाधन के उपयोग पर समूची मानव जाति का एक समान अधिकार है।
आर्थिक रूप से एक दूसरे पर निर्भर मानव जाति को मानवता के उत्थान के लिए काम करना चाहिए लेकिन हो क्या रहा है?
जिनके हाथ में सत्ता आ जाती है वो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण करके कमज़ोर वर्ग का शोषण करते हैं और अपने रास्ते से हटा देते हैं।
हर क्षेत्र में कार्बनिक माहौल बनाकर ऑक्सीजन सिलेंडरों के सौदागर बन बैठे हैं।ये मानसिक शोषण नहीं तो और क्या है?
शुद्ध हवा में साँस लेने के लिए आर्थिक असमानता से जूझता वर्ग आनन फ़ानन में अपने ज़मीर को भी दाँव पर लगा बैठता है, बस यहीं से आरंभ होता है मानवता का पतन।
धरती पर खेती करनी है तो रसायनिक खाद उपलब्ध है।धरती वासियों के लिए जल और वायु जैसी प्राकृतिक ज़रूरतों के निजीकरण के कारण मानसिक सौदेबाज़ी के बाज़ार उपलब्ध हैं।
कैसे रक्षा होगी पृथ्वी की? जब हर तरफ असमानता और असहिष्णुता का बोलबाला है।
ग्लोबल वार्मिंग क्या केवल रसायनिक और औद्योगिक कारणों का परिणाम है? क्या इस स्थिति की ज़िम्मेदार मानव की मानसिकता नहीं है?
आज समूची मानव जाति एक विषाणु के कारण ख़तरे में है।इस स्थिति से उबरने के लिए समूचे विश्व को आज सद्भावना के बीजों की ज़रूरत है, जिनके बीजारोपण से समूची धरती पर मानवता की फ़सल लहलहा उठेगी।
पृथ्वी पर भेजी गई हर एक प्रजाति को समान रूप से जीवन जीने का अधिकार है।
चार दिन के सफर पर निकले मुसाफ़िर अपनी जमाख़ोरी प्रवृत्ति को त्याग कर यदि निस्वार्थता से बाँट कर खाने की मानसिकता को अपनाएँगे तो सभी का सफर आसान हो जाएगा।
अर्थ डे मनाने के नाम पर विभिन्न आयोजनों के बाज़ारीकरण देखकर ताज्जुब होता है।पहले कार्बनिक वातावरण बनाया जाता है, फिर सत्तासीन वर्ग ऑक्सीजन सिलेंडरों के व्यापार करते हैं, और मोटी वसूली से कमाई दौलत से लँगर लगाते हैं।एक कहावत है – “जैसा खाए अन्न वैसा होए मन”।जब जबरन वसूली और शोषणमूलक अर्थ से बना भोजन किसी भी प्रजाति के अँदर जाएगा तो वो भूख को शाँत करने की बजाए मन को अशांत करेगा और मानव प्रजाति किसी भी कीमत पर धन कमाने की अँधी दौड़ में शामिल हो जाएगी।
आज सबसे ख़तरनाक नशा यही तो है जो समूची मानव जाति को स्वामित्व की महामारी से ग्रसित किए हुए है।
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सँकल्प यही मानव को अब मानवता का आधार चाहिए
मन की मिट्टी को आकार देता निपुण शिल्पकार चाहिए
बचाना है ग़र पृथ्वी को तो हर प्राकृतिक उपहार चाहिए
जिस्मों की सौदेबाज़ी नहीं केवल निस्वार्थ प्यार चाहिए
हिंसक और भ्रष्टाचारी सभी प्रवृत्तियों का सँहार चाहिए
खिल उठे मानवता हर तरफ सद्भावना की फुहार चाहिए